गुरुवार, 29 मार्च 2012

पथिक !

अप्रतिम
अभ्युत्थान से ऊपर,
मै बढ़ रहा हूँ आसमान से ऊपर,
स्वप्नद्रष्टा ही सही ,
पर समय के पथ पर ,
बढ़ तो रहा हूँ अरमान से ऊपर !
पथ रोकता है ,
फिर टोकता है ,
और पूछता है,
मेरे सफ़र का चरम क्या है ?
और फिर ,
और फिर जब देखता है ,
मुझे अनवरत बढ़ते हुए ,
तो हौसला देता है मुझे ,
और कहता है ,
ऐ पथिक तू चल ,
और चलता जा ,
क्युंकि मेहनतकश के लिए ,
सिर्फ मेहनत ही है ,
प्रार्थना और भगवान से बढ़कर !

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

Copyright

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सरदार भगत सिंह के आत्मा की आवाज

शहीद दिवस पर शहीदों को समर्पित एक कविता ...
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एक दिन कलम ने आके चुपके से मुझसे ये राज खोला ,
कि रात को भगत सिंह ने सपने में आकर उससे बोला,

कहाँ गया वो मेरा इन्कलाब कहाँ गया वो बसंती चोला ?
कहाँ गया मेरा फेंका हुआ, मेरे बम का वो गोला ?

आत्मा ने भगत के आकर कहा , ये देख के हम बहुत शर्मिंदा हैं,
कि देश देखो आज जल रहा है,और जवान यहाँ अभी भी जिन्दा हैं ??

देख के वो रो पड़ा इस देश की अंधी जवानी ,
क्या हुआ इस देश को जहाँ खून बहा था जैसे हो पानी ,

खो गया लगता जवान आज जैसे शराब में ,
खो गया आदतों में उन्ही , जो आते हैं खराब में ,

कीमतें कितनी चुकाई थी हमने, ये तो सब ही जानते हैं
तो फिर इस देश को हम आज , क्यूँ नही अपना मानते हैं ?

देश के संसद पे आके वो फेंक के बम जाते हैं ,
और खुदगर्जी में हम सब उन्हें अपना मेहमां बनाते हैं ,

भूल गये हो क्या नारा तुम अब इन्कलाब का ???
जो पत्थरों के बदले में भी थमाते हो फुल तुम गुलाब का ?

मानने को मान लेता मानना गर होता उसे ,
जान लेता हमारे इरादे गर जानना होता उसे ,

आँखों में आंसू आ गया, देख के अब ये जमाना ,
लगता है आज बर्बाद अब , हमको अपना फांसी लगाना ,

ऐ जवां तुम जाग जाओ तुम्हे देश ये बचाना होगा ,
आज आजाद और भगत बन के तुम्हे ही आगे आना होगा

ऐ जवां तुम्हे नहीं खबर ,कि जब-जब चुप हम हो जाते हैं
देश के दुश्मन हमे तब-तब, नपुंसक कह- कह कर के बुलाते हैं,

उठो और लिख दो आज फिर से, कुछ और कहानियाँ ,
कह दो जिन्दा हैं अभी हम और सोयी हैं नही जवानियाँ,

गर लगी हो जवानी में, जंग, तो हमसे तुम ये बताओ ,
या खून में उबाल हो ना , तो भी बस हमसे सुनाओ,

एक बार फिर से हम इस मिटटी के लाल बन के आयंगे ,
एक बार इस देश को अपनों के ही गुलामी से हम बचायेंगे ,

नारा इन्कलाब का हम फिर से आज लगायेंगे ..
पर ये सवाल हम आप से फिर भी बार-बार दुहराएंगे,

कि आखिर कब तक ?? आखिर कब तक ?
इस देश के जवां कमजोर और बुझदिल कहलाते जायंगे.....
इसको बचाने खातिर कब, तक भगत सिंह और आजाद यहाँ पर आयंगे ???

शनिवार, 17 मार्च 2012

कहा बाड़ भगवन

कहा बाड़ भगवन तनी एक बार आव
आपन दरस तनी सबके देखाव,

देख तोहरा दुनिया के का हो गली बा
जे रहे केतना सीधा उ टेढ़ा हो गइल  बा,

लागत्ता  न सुधरी अब तोहर इ दुनिया
लजात  अब नइखे  काहें,   देख ललमुनिया,

ना माई के सुने ना बाप से डराए
और भाई के इज्जत के मिटटी में milaye,

कहे बाप से हम अब माडर्न  हो गइल बानी
राउर वक़्त अब हो गइल बा एगो बितल कहानी ,

का इतना टाइम आगे हो गइल बा
की शर्म लाज , इज्जत अब सब खो गइल बा ?

अरे भगवन एक बार तनी तुन्हू आव
हे नादान के तुहूँ आके बताओ,

की बहुत दिन ना रही इ नादान जवानी
इ उम्र के ना कही देख बन जाये कहानी,

इ ता रहे देख भगवन उमर के नादानी
पर इ देख तू तनी एगो भौजी के कहानी,

माथा के आँचल  भौजी अब सिर से गिरावेली
पति के अब देख उ डार्लिंग बुलावेली,

सासु अम्मा देख अब आंटी हो गइल बाड़ी
पतोहिया के देख अब उ धोयेली साड़ी,

बेटा ना सुने अब माँ के कौनो बात
बाप के भी दिखा देले कुछ ता उनकर औकात,

का भगवन का बाकी बा अब देखे  के तोहरा
कहे तू अब करतार ऐ पापन के पहरा,

अरे अपना दुनिया  के कुछ ता सिखाव
ना ते ऐ दुनिया के मिटटी में  मिलाव,

के रहे भिखारी ????

हम देखनी
के उ कुछ मांगत रहे
शायद उ कूछ मागते रहे
मईल , पुरान, फाटल कपड़ा के टुकड़ा में लिपटल
लाज से मारल सिकुडल तन रहे
आंसू से भरल नयन रहे ..

उ भूख के आग में जलत रहे
परकिरती के क्रूरता में पलत रहे
इन्सान के जानवर में बदलत रहे
इंसानियत के इहे बात खलत रहे ...

आपना मईल फाटल कपड़ा से अपना तन के ढंकत रहे उ
पेट क खातिर ही सही हाथ सब के आगे पटकत रहे उ ..

अदम्य क्रूरता के हद के परतीक रहे उ नारी
दुसहासी रहे या रहे भूख के मारी
लोग कहा रहे ओकरा के दूर हट रे भिखारी ...

दूसरा ओर हम जवन देखनी

समाज भी भूखाइल रहे
का पेट के ????
ना ना वासना के
उ मांगत रहे वासना के भीख

समाज के आँख में दया भी ना रहे
लोक- लाज और हया भी ना रहे
उ चलावत रहे फब्तीय्न के तीर
जवन बढावत रहे कलेजा के पीर

उ हंसत रहे दोसरा के बेबसी पर
दोसरा के तड़प पर
और शायद अपना असमर्थता और कायरता पर भी

आज हम सोच तानी
का बस एगो हम हीं रहनी ओकरा सहायता के अधिकारी ???
के रहे भिखारी ?
के रहे भिखारी ?
उ समाज आ कि उ लाचार बेबस नारी ?

दहेज़ के खातिर

एक दिन सोचनी दुनिया के चिंता से दूर होकर के सोये के ,
बैठल रहनी एक दिन त एगो आवाज आइल रोये के ....
रउओ सुनी लोगिन ई रोये के आवाज कहा से आवता ,
जरुर कौनो बाप के ओकरा बेटी के चिंता सतावता ,
बेच दिहल जे अपना तन के
रेहन रखले बा अपना मन के
सिर्फ एगो वचन के बदला में
लेले बाड़े कुछ सिक्का कर्ज पर उ अपना कफ़न के बदला में

देख के बाबूजी के ई दसा
बेटी के मन में एगो बात आइल
का खाली एही खातिर जुटा के रखले बाडन बाबुजी जिन्दगी भर पाई पाई ??
का नारी बनल बाड़ी सिर्फ सेज और दहेज़ के खातिर ??
आखिर काहें ????
आखिर काहें गिरवी राखेलें
सब बाप अपना तन-मन के सिर्फ कुर्सी- मेज के खातिर ?

बेटी के मन में समाज के खातिर नफरत भर आइल
ओकरा बस सूली-फांसी ही नजर आइल
अउर फिर हो गइल एगो नारी कुर्बान दहेज़ के खातिर
चन्द कागज के टुकड़ा अउर कुर्सी मेज के खातिर ......

हम ना आएब :- भगवान के कथन

हम ना आएब ,
आखिर काहें आएब हम ,
केकरा-केकरा के समझायेब हम,
केकरा के न्याय के बात बताएब हम,
केकरा के शांति के पाठ पढायेब हम,

दू भाई के तांडव नृत्य
देखत रही जाएब हम ,
का एही खातिर आएब हम ,
केकर शांति दूत बन के जाएब
का भगवान वाला आपन छवि
खुद बचा पाएब हम ???

हम कौना-कौना रावण के मार गिरायेब
कौना- कौना कंस के मौत के नींद सुलायेब ?
अब शांति संदेस कहाँ सुनायेब ?
कौना कौना दुर्योधन के पास जाएब ?
का खुद बिना स्वार्थ के रह पाएब ????

जब चारू ओर हो रहल होखे चीर हरन ,
पुकारत होखसन द्रौपदी सब ,
हम कौना-कौना कौरव दरबार में जाएब ,
केकर केकर लाज बचायेब हम ,
जब चारो ओर मचल बा चीख पुकार,
का कौनो द्रौपदी के पुकार सुन पाएब हम ,

आखिर इतना वस्त्र -वसन कहा से लायेब हम ,
बहिर- गूंगा दर्शक बन के देखत रही जाएब हम ,
एहिसे सोचतानी नाही आएब हम ,
काहे से कि लूटत-बिलखत ऐ मानवता के ,
बचा ना पाएब हम , हाँ बचा ना पाएब हम ..

मै नारी हूँ

मै नारी हूँ
अक्सर मै इसी सोच में खो जाती हूँ
क्या मुझे वो अधिकार मिला है ?
मै जिसकी अधिकारी हूँ ?
मै नारी हूँ

 मनु कि  अर्धांगिनी मै
विष्णु- शिव कि संगिनी मै
मै अक्सर सोचा करती हूँ
क्या मै लक्ष्मी  और दुर्गा की अवतारी हूँ ??

 मै धर्म-धारण की प्रतिमूर्ति हूँ
मै सहनशक्ति की मूर्ति हूँ
जब अर्ध पुरुष हो कोई तो  मै ही उसकी पूर्ति हूँ
फिर भी जब जब पौरुष किसी का जलता है
तो सोचती हूँ क्या सिर्फ जलन की मै अधिकारी हूँ ??

जब जब दुर्योधन कोई ललकार लगाता है ,
तब तब युधिष्ठिर मेरा दावं लगाता है ,
जब हर जीत का होता है यहाँ  खेल कोई
मै आँखे मीचे खड़ी बेबस पांडव प्यारी हूँ ..

हर राम के साथ वनवास को जाती हूँ मै
और चुपचाप हर दुःख दर्द सह जाती हूँ मै
फिर भी परख मेरे चरित्र की होती है
तब चुपचाप  आग में खड़ी जनक-कुमारी हूँ .,,

जब जब पुरषार्थ किसी का हो जाता है छिन्न-भिन्न
तब तब मै पुकारी जाती हूँ चरित्रहीन
चुपचाप इसे  सुनकर मुझको शर्म खुद पर ही आती है
की क्यूँ नारी ही सारी दुनिया मै चरित्रहीन पुकारी जाती है ??

 चुपचाप प्रसव  पीड़ा नारी सह जाती है ,
हर दर्द वो बिना शिकन के सह जाती है ,
क्यूँ नारी हूँ? इसी संशय में रह जाती है ,
और समाज  में अबला खुद को कह जाती है ??

जब जब मैंने अपना भाव व्यक्त किया है
तब तब इस समाज ने रंजित रक्त किया है
जब जब कोई लक्ष्मण आवेश  में आता है
मै नाक कटी  शूर्पनखा   दुखियारी हूँ ,

पूछती हूँ मै मुझे कोख में मारने वालों से ,
क्यूँ हर घर में जलती  आई हूँ ,सालों-सालों से ??
नफरत करती हूँ मै मंदिर मस्जिद शिवालों से ,
नफरत है मुझको इन मूर्ति पूजने वालों से ..

कहने को कोई मुझको दुर्गा-काली का अवतार कहे
या लक्ष्मीरूपा और सरस्वती कोई  मुझको बार-बार कहे
छोड़ दो तुम अब किसी देवी के चरणों पे गिरना
कोख से फेंकी हुई हर नवजात बात यही बार बार कहे

व्यभिचारी  बन जब समाज  यहाँ कोई जीता है
क्या उसके लिए नही कोई धर्मग्रन्थ,कुरान और गीता है .?????


( नारी-जगत  को समर्पित मेरी आगामी काव्यसंग्रह  " नारी तू नारायणी " से )
( सर्वाधिकार सुरक्षित द्वारा राजीव कुमार पाण्डेय )

मै मरघट में जब जाता हूँ


मै   मरघट  में  जब  जाता  हूँ  ,
 मै  मर-घट  में  मर  जाता  हूँ  ,
 जब  मर  और  घट  न  घट  पाए..
  तो  खुद  ही  मै  घट  जाता  हूँ .//

मै  मरघट   को  समझाता  हूँ ,
 कि   मर  के  घट  न  पाउँगा  मै ,
 तुझे  आज  ये  बताता  हूँ  ,
 कि  कर  तू  मेरा  इंतजार...
  अभी  मै  कुछ  देर  बाद  मरघट  पे  आता  हूँ  ,

 ऐ  मरघट   तू   मुझे  क्या  जाने  ??
 मै  हूँ  इन्सान  एक  मरघट  का  ,
जो  मरघट  पे  तो  आता  है  ..
 पर  अपने  पीछे  एक  अद्भुत ,अविचल ,यथार्थ और
अविश्वसनीय   इतिहास  छोड़  वो  आता  है ........................

दु:शासन की बेबसी


एक दिन दु:शासन से मुलाकात हुई मेरी ,
बेबस और परेशान था जब उससे बात हुई मेरी ,

क्या हुआ दुशासन  क्या नही करते अब तुम चीर हरण ,
क्या अब नही करते तुम किसी अबला का वस्त्र हरण ,

दुशासन  मायूस हुआ और मुझसे बोला
अपने ह्रदय में कैद भावों को उसने खोला ,

हम अब कसी कौरव दरबार में जाएँ ?
वस्त्र वाली द्रौपदी  अब हम कहा से लायें ?

बेबस ,अबला, बलहीन अब कहा रही है नारी ?
कहाँ रही अब पहले जैसे वो बेचारी ?

वस्त्रों से प्रेम अब उसे कहाँ जचा  है ?
उसके तन पे वस्त्र अब कहाँ बचा है ?

कृष्ण  बन भगवान कहाँ दरबारों में जाते हैं अब ?
अर्जुन-युधिष्ठिर ही बेच द्रौपदी को बाजारों में आते हैं अब ..

अगर कुछ नारियों  कि बात मै  छोड़ देता हूँ
तो बाकियों को देख मै शर्म से मुह मोड़ लेता हूँ ,

हे नारी ! नग्नता के पास तू जितनी जाएगी
नारायणी का अपना पूज्य रूप अपना खो जाएगी

"देख आज दुशासन को भी तुम्हारी चिंता सताने लगी है
आज का तेरा रूप देख उसे भी शर्म आने लगी है ..."

किसको खुदा और किसको तुम भगवान कहते हो ??


कभी हिन्दू तो कभी खुद को मुसलमान  कहते हो
जो कुछ बोलता नही उसे खुदा तो कभी तुम्ही भगवान कहते हो ?

जो खून से खेलता  है उसे तुम हैवान कहते हो
तो फिर किस वजेह से खुद को तुम इन्सान कहते हो ?

किसी पत्थर का कोई धर्म नही होता ,
चाहो शिव मान कर पूजा कर लो या फिर इसे मस्जिद के गुम्बद पे लगा दो ,

मरने के बाद किसी को  स्वर्ग और जन्नत में भेजने वालों
क्यूँ कहते हो कि लाश को  दफना दो या फिर आग    लगा दो  ?

खाने को तो  कसमे खाई जाती हैं इमां के सौदे में भी तो
आखिर किस ईमान को तुम मुकम्मल   ईमान कहते हो ?

बे वजह  कि उलझनों में  उलझ के रहते हो  खुद यहा
और इसे धर्म के नाम पर दिया गया इम्तिहान कहते हो  ,

जो खुद ही खुदा है  और  जो भगवान है खुद ही
उसकी  रखवाली   में  आखिर क्यूँ खुद को परेशान कहते हो ?

सरहदों में बाँटना है तो सर उठा के देख लो ऊपर
और इसे बाँटो जिसे तुम आसमान कहते हो  ,

एक दिन कहा था आकर के भगवान ने मुझसे    ' ऐ राजीव' !
"  उसे रोटी -  कपडा दो जिसे तुम  भूखा-नंगा इन्सान कहते हो .

 बताओ प्रेम से " हिन्दू नही मुस्लिम नही बस   इन्सान ही हो तुम  "
तो उस के लिए तो  तुम्ही  खुदा हो और भगवान ही हो  तुम ....................

क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ???


कल शहर के राह  पर मैंने भीड़ देखा था ,
जहाँ एक नवजात कन्या को उसकी माँ ने फेंका था ,
मै बेबस था चुपचाप था बहुत परेशान था ,
मै उस नवजात की माँ की ममता पे बहुत हैरान था  , 

मै कुछ नही कह सकता था उस भीड़ से , क्युं कि मै भी एक इंसान था ,
पर क्या उस कुछ देर पहले जन्मी बच्ची  का नही कोई भगवान था ?? 

क्या उस माँ की कोख ने उस माँ को नही धिक्कारा होगा  ?
क्या उस नवजात की चीख ने उस माँ को नही पुकारा होगा ? 

आखिर क्यूँ जननी काली  से कलंकिनी  बन जाती है ? 
जन्मती है कोख से और फिर क्यूँ कूड़े पे फेंक आती है ? 

गर है ये एक पाप , तो क्यूँ माँ करती है उस पाप को ?
क्या शर्म नही आती उस बच्ची के कलंक कंस रूपी के बाप को ? 

बिलखते हैं, चीखते हैं मांगते हैं रो-रो कर भगवान से ,
जो की दूर हैं एक भी संतान से , 

  उस नवजात को मारने  की वजह बढती हुई दहेज तो नही ?
 कुछ बिकी हुई जमीरों के लिए लकड़ियों की कुर्सी मेज तो नही ?
कुछ बिके हुए समाज के सोच की  नग्नता का धधकता तेज तो नही ?
 इस नवजात की मौत की वजह  किसी के हवस की शिकार सेज तो नही ? 

बस एक बात पूछता हूँ उस समाज से , उस माँ से ,और उस भगवान से
क्यूँ खेलते हों मूक  निर्जीव सी नन्ही सी जान से  ?? 

आखिर क्यूँ मानवता पे यूँ गिरी है ये गाज ?
जिस माँ ने फेंका था उस नवजात को, उसी माँ से पूछना चाहता हूँ मै  आज ..  

क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ?
अगर तुम्हारी माँ ने भी तुम्हे अपने कोख से निकाल फेंक दिया होता ??????? 

वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ...


वक़्त का आप क्या कहेंगे मिजाज ,
हमने वक़्त आने पे वक़्त को बदलते देखा है ,
कहकहों के गूंज जो हुआ करते थे महफ़िलों की शान ,
उन कहकहों की गूंज को  अश्कों में बदलते देखा है /


इन्सान भी देखें मैंने कुछ भगवान से बढ़कर ,
तो कुछ इंसानों को मैंने इंसानियत को कुचलते देखा है ,
कुछ को देखा है मैंने हीरों को भी फेंकते हुए पत्थरों की तरह , 
तो कुछ को चंद सिक्कों के लिए भी नियत बदलते देखा है /


किसी को अपनों  के लिए फूलों पे भी चलने से  डरते देखा है मैंने ,
तो किसी को  गैरों के लिए  खंजर पे भी चलते देखा है ,
अपनों को अपना और गैरों को गैर कहने से अब डरता हूँ मै ,
जब से बारात को जनाजे के मंजर में बदलते देखा है /


जिन्दगी आग का दरिया है गर तब भी चलना होगा , 
जैसे सर्कस के मदारी को आग पे चलते देखा है ,
कैसे कहें की अब  उन्हें जिन्दगी की समझ हो गयी है ,
जिन्हें अब बच्चों  के खिलौनों के लिए मचलते देखा है /

बदला है वक़्त , बदला है मौसम और बदले हैं दिन और रात भी ,
तभी तो कांपते रूहों के दिलों को भी अब जलते  देखा है ,
वक़्त की बात ही तो है कि  जो रखवाली करते हैं दिन  में ,
 उन पहरेदारों को रात  में मुजरिमों के साथ में चलते देखा है ,


अब तो डर लगता है खुदा और भगवान से भी मुझको ,
 जब से मौलवियों को टोपी और दाढ़ी बदलते देखा है ,
जबसे देखा है मैंने शराबखाने से पंडितों को निकलते हुए ,
और कुछ  साधुओं को तवायफों के साथ में चलते देखा है ,


महंगाई कि मार से इस कदर मारे  हैं  बहु-बेटियों कि जलाने  वाले, 
कि अब ट्रेनों को उनके गले के ऊपर से निकलते  देखा है,
कुछ को देखा है मैंने तेजाब के बदले में खुद को गिरवी रखते हुए , 
तो कुछ को पेट्रोल  को अपने खून से बदलते देखा है , 


किसे कहें बेईमान अब तो यही सोचना पड़ता है ,
जब से ईमान  के सौदे में ईमान  को ही ईमान बदलते देखा है ,
 सूरज भी मोम कि तरह   पिघलता हुआ नजर आता है अब, 
 और चाँद को भी आजकल   आग उगलते देखा है ,


सोचता हूँ क्या जानवरों से भी बदतर क्या हो गया है आदमी ,
जब से  मैंने गिद्धों को कभी आदमी की लाशों पे नही उतरते देखा है,
पूजने को दिल करता है इन चील-कौओं को भी अब ,
जब से आदमियों को एक दुसरे का मांस कुतरते देखा है /



कुछ इस कदर मैंने वक़्त को बदलते देखा है ,
कि वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ,
ये दुनिया है इसकी फितरत नही बदलती  "राजीव" !
ये कह कर कलम को भी लिखने से मुकरते  देखा है /

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

अयोध्या प्रेम

Written  before long time when the result /justice on Raam Mandir /Babri Maszid

एक हिन्दू होकर के भी मैंने कभी हिंदुयों का साथ नही दिया न ही मुस्लिमों से कोई  प्रेम है.और हाँ ना ही कभी ईद  में किसी से गले मिलने से नफरत किया ,ना ही , होली  के रंगों में डूब जाने से कोई दूर रहे . लेकिन हाँ सचाई से मुह मोड़ना शायद हमने सिखा नही कभी  . आज का सबसे जवलंत  मुद्दा है कि, अयोध्या मुद्दे  पर  फैसला  आने वाला  है कोर्ट का और हर कोई त्यारियां कर रहा है उस दिन होने वाले विवादों के लिए . मीडिया ने अपने ने इंटरव्यू  के लिए बुक कर लिया है उन सब को जिनका  इस देस से कोई लेना देना नही है , जिनका किसी धर्मं से कोई लेना देना नही है , जिनका न्यायिकता से कोई लेना देना नही है .
लेकिन फैसला सुनाने के दिन वे पूरी तयारी के साथ आयेंगे और वो भी पूरी हमदर्दी के साथ . कभी नमाज न पढने वाले चमचमती हुई टोपी पहन के आयेंगे . तो कभी मंदिर न जाने वाले लाल पीला , हरा नीला  कपडा लटका के . और उस दिन आप भी घर से बाहर  नही जाईयेगा  क्योकिं उस दिन आप सुनेगे देस प्रेम ,धर्म प्रेम के नये नये किस्से.

मंदिर मस्जिद को स्वाभिमान के साथ जोड़ना तो आसान है लेकिन जो इसे स्वाभिमान के साथ जोड़ रहे हैं वो सिर्फ या तो मंच से भासन देने वाला वर्ग है या फिर दूर केबिनो में बैठ कर देश सुधार , समाज सुधार का ढकोसला रचने वाले . लेकिन जो  भी स्वाभिमान की बात करते हैं,  तो उनसे एक ही सवाल है की क्या आप जायेंगे स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने  . अरे देश पे हमला करने वाले तो खुद ये —– लोग हैं जो कभी स्वाभिमान या फिर कभी धर्म के नाम पर बेचारी जनता को लडाते रहते हैं . और खुद घरों में दुबके पड़े रहते हैं. और जब फैसला सुनाया जायेगा न तब भी देखिएगा की उस वक़्त आपका स्वाभिमान कहा होंगा , जब आप अपने कमरे में बैठ कर चर्चा करते फिरेंगे . मै दावा करता हूँ की जो इस झगड़े को जन्म दे रहे हैं वो वो एक बार उस दिन चलकर के खड़े तो हों वहां . तो उसी वकत ख़त्म कर दिया जायेगा सदियों का झगड़ा . लेकिन अगर नही चल सकते तो अपने घरों में चुपचाप बैठे रहें और जो होता है उस होने दें.

आखिर क्यूँ नफरत है इनको ईद  के मौके पे हिन्दू और मुस्लिम के गले मिलने से , क्यूँ इनकी ——————- जाती है जब होली में सब एक होना  चाहते हैं .
क्यूँ
क्यंकि  तब ये वोट कैसे पाएंगे क्यूंकि इनका भी तो सपना है ,, सरकार में जाने का , और  या तो खेल नही तो सडक ,नही तो बाढ़ ,  नही तो देस का विकास करना . जैसे कि सब कर रहे हैं.

और सब से अच्छी बात तो ये है कि मुंबई में रहने वाले धर्म प्रेमी जो इस अयोध्या में रहने वालों को मारते  वक़्त ये नही पूछते कि तुम मुस्लिम हो या हिन्दू ? तुम अयोध्या से आये हो या आजमगढ़ से  ??  वो भी शामिल हैं इस अयोध्या प्रेम में , उन्हें भी प्रेम है इस अयोध्या में जन्मे राम से …  इस बाबरी मस्जिद में निवास  करने वाले खुदा से ..——————————————————————-……………