मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

मजबूर बिहार, मजबूत बिहार या फिर मजदूर बिहार ?

अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ ,तो पंजाब के किसान बिहार से जाने वाले उनके खेतों में काम करने वाले मजदूरों के लिए परेशान हैं। और मुम्बई में उतर भारतीय लोग बांद्रा में भीड़ जमाये बैठे हैं। 

अब आगे

अगर आप को गमछा, लिट्टी -चोखा, धोती -कुर्ता, छठ और होली का मतलब बिहारी होना लगता  है तो माफ़ करें, दोनों हाथ जोड़ के कह रहा हूँ कि अब आप आगे नहीं पढ़ें। 

अगर किसी शहर में किसी रास्ते के किनारे खड़े खड़े किसी भी इंसान को पेशाब करते देखते हुए किसी के यह कहने "कि अरे पक्का बिहारी है " पर आपको तकलीफ होती है लेकिन बोलने वाले को नहीं टोकते तो भी आगे नहीं पढ़ें। 


साथ ही आगे पढ़ने से पहले यह कर बद्ध प्रार्थना कि अगर आप प्राउड बिहारी हैं या फिर  किसी पुर्वाग्रह से ग्रसित हैं ,तो आप  आगे नहीं पढ़ें। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आपका वर्षों से जुटाया हुआ गर्वित करता आपका पुर्वाग्रह खंडित हो। 

लेकिन अगर आप के अंदर कुछ रोज मर रहा है बिहारी और बिहार सुन कर तो जरूर पढ़ें। 

ये समझिये कि यह कहानी बिहार से निकले हर व्यक्ति का है , जो पहली बार आँसू भरी आँखों से बिहार से निकलता है ,और फिर बिहार को खुद के अंदर से निकालने की कोशिश करते उम्र गुजार देता है। 
पहली बार किसी जनसेवा और जननायक ट्रेन से या फिर राजधानी पकड़ के पटना, दरभंगा, भागलपुर, बलिया सिवान, छपरा से जब बिहार छोड़ता है ना,तो शुरू के कुछ दिन तक तो उसका मन नहीं लगता और फिर एक ऐसी स्थिति आती है ,जब वह फिर वापस उन्हीं जगहों पर नहीं लौटना चाहता। चाहे इसके लिए उसे सूरत, दिल्ली, मुम्बई में जाके झुग्गी, खोली में रहना पड़े या फिर उसे अपने खून ,पसीने, ठगी आदि से फ्लैट लेना पड़े। 

धीरे -धीरे रोज एक एक कतरा बिहारी वो मारता रहता है अपने बिहारीपन में से।  उसकी सारी कोशिश रहती है कि उसके अंदर का बिहार मर जाए। 
कितनी ताज्जुब की बात है कि एक पंजाबी, बंगाली ,उड़िया , गुजराती को कभी समस्या नहीं हुई अपने राज्यों के नाम से लेकिन हम बिहारियों को जरूर होती है। 

ख़ुद के अंदर के बिहारी  को  निकालने के क्रम में मै ऐसे तमाम लोगों से दिल्ली,चंडीगढ़, गुजरात, राजस्थान के शहरों में मिला हूँ, जो अपने परिचय में बिहार को नहीं शामिल करते जब तक उन्हें मैं यह नहीं बता देता कि मैं बिहार से हूँ। 

हो सकता है कुछ लोग होंगे जो इसके अपवाद हों ,लेकिन ऐसे लोग भी या तो किसी मजबूरी वश हैं,किसी और कारण वश हैं या फिर खुद को ढाल चुके हैं। 
यहाँ ढाल चुके का मतलब उस माहौल से है, जिसने बिहार को बिहार बना रखा है, और बिहारी को बाहर के लोगों की नज़र वाला बिहारी। 

शहर कोई भी हो देश कोई भी हो, फैक्टरी कोई हो लेकिन वहाँ पर काम करने वाला बिहारी जरूर होगा। 

दुबई जैसे शहर की सब ऊँची और चमचमाती और आसमाँ को छूती बिल्डिंग ऐसे नहीं चमकती, उसमें कुछ बिहारी मजदूरों का पसीना और उनके बिके हुए जमीन के टुकड़े में बसा हुआ एक बेहतर भविष्य का सपना चमकता है।  आज भी, 1500 रुपया थाने में बेगुनाही के लिए जमा करने के बाद जो पासपोर्ट आता है ,तो उसी के साथ उम्मीदें और बेहतर कल के सपने में बिहार से बाहर चले जाने का दर्द , अपनों से दूर होने का दर्द कहीं रिसते हुए खत्म हो जाता है। 
और सपनों के बेचने का खेल दलाल खेलते रहते हैं, और एक बड़ा व्यापार चलता रहता है। 

गुरुग्राम के गाड़ियों के पार्ट्स बनाने वाला सारी उम्र, रहने ,खाने ,दिहाड़ी  के जुगाड़ के बाद ठेकेदार बनने के सपने देखता रह जाता है और बिहार भूल जाता है।  लुधियाना की वुलन फैक्ट्री, या फिर सूरत की साड़ियों पर कसीदा कारी करता हुआ बिहारी जब वापस गाँव लौटता है, तो वह अपने बनाये हुए एक स्वेटर, शाल और साड़ी तक लाने की औकात में नहीं होता। 
क्योंकि उसके रोज के बचाये पैसे से कोसी के शाप से संतप्त  अपने छप्पर की मरम्मत करानी होती है। 

मुम्बई में हीरो बनने जाने वाला बिहारी कब उतर भारतीय हो जाता है ,उसे समझ ही नहीं आता, हीरो बनने वाला युवक कब वहाँ स्पॉट बॉय, और कराउड/ साइड डांसर बन के गुम हो जाता है, उसे कभी खबर नहीं होती। लेकिन सबके बावजूद वह वापस बिहार नहीं जाना चाहता। क्योंकि सपनों के कब्र गाह  में कौन वापस जाना चाहता है। 
यही नहीं जो सफ़ल हो जाता है, वह भी नहीं जाना चाहता वापस।

जरूर आप सोचने लगे होंगे कि अरे ये तो खाली खराबी और बुराई की ही बात करता है। 

तो आइये उन बातों पर भी एक नजर डाल लें जो हमें महान बनाता है। हमारे लिए आज भी वह बदमाश, सांसद, नेता महान है, जिसके आस - पास दस- बीस बिना लाइसेंस के कार्बाइन, रिवाल्वर, राइफल वाले गुंडे घूम रहे हों।  हमारे लिए सबसे ज्यादा सम्मानित वही नेता जी लोग होते हैं जिनके ऊपर दस- बीस मर्डर का केस लदा हो। और 10 x 10 के दड़बों में जब हमें किसी से बड़ा बनना होता है, तो हम तुरन्त उन्हीं गुंडों का नाम लेते हैं। 

भले ही बाहर दड़बे  से बाहर निकलते ही हमारा प्राउड टू बी बिहार फुस्स हो जाता है। अकेले बोलने से हमें डर लगता है लेकिन दस बीस हों तो हम शेर हैं। 
अरे हाँ खुद को खुश करने के लिए हमने मुहावरा भी तो बना लिया है," एक बिहारी सब पर भारी "
और बाहर वालों ने इसका जवाब भी बना लिया है " एक बिहारी सौ बीमारी " । 

लेकिन हमें क्या जी, देश के पहले राष्ट्रपति हमारे ही यहाँ सिवान के थे, लेकिन साथ ही हम यह भूल  जाते हैं , उसी सिवान के जहाँ तेजाब से नहला के लोगों को मार दिया गया, जो बिहार में गुंडागर्दी के नाम से फेमस रहा । 
इससे भी क्या नालंदा तो बिहार में ही था न मगध भी था, काफी तो है बिहार के लिए घमण्ड करने के लिए। 


लेकिन हमें क्या जी हम तो या तो गुंडा बदमाश बनते हैं, या फिर सीधे IAS PCS रिजल्ट देखिये कभी भरा होता है नाम बिहारियों का, साथ ही अखबार भी तो देखिये वो भी भरा होता है, खूनी खबरों से,  गुंडागर्दी  लूट पाट , धोखाधड़ी की खबरों से। 
और तो कितना घमंड करें, हमारी टॉपर बनती नहीं बनाई जाती है, अब हर किसी को यही लगता है ,कि हमारे यहाँ नकल  ही कारोबार है।  हमारे विश्वविद्यालयों की शाख अब ये है कि यहाँ साइंस का छात्र हो या आर्ट का वह किसी शहर के किसी फैक्टरी में काम करता है ,और फिर आके साल दो साल में एक बार होने वाली परीक्षा देख के (देके नहीं) वापस चला जाता है। 
लेकिन फिर भी हमारे यहाँ गणित बहुत तेज है, जानते हैं क्यूँ क्योंकि भूखा व्यक्ति गिनती  बढ़िया करता हैं, हमारे यहाँ पटना के "आनंद कुमार" के ऊपर फिल्म बन जाती है, वो हिट रहते हैं। लेकिन डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह को मरने के बाद एंबुलेंस नहीं मिलता। और फिर सरकारी सम्मान का ड्रामा किया जाता है। एक कड़वा सच है ,हमारे यहाँ जो सम्मान के काबिल है, वह कभी सम्मानित नहीं होता। 

और जब हम अपने राज्य में सम्मानित नहीं होते तो बाकी जगह सम्मान  की लडाई कैसी? 

ये सच है हिंदुस्तान सबका है, क्षेत्रवाद राज्यवाद पर बात बेमानी है, लेकिन जो भैया / भईया शब्द लक्ष्मण का राम के प्रति प्रेम दिखाता था, वह पंजाब, हरियाणा, गुजरात महाराष्ट में नफ़रत के किस पराकाष्ठा  को छुता है ,इसे बस वहाँ काम करने वाले मजबूर मजदूर समझ सकते हैं,हम और आप जैसे थोड़ा ठीक से रहने -दिखने वाले थोड़ा कम। लेकिन राह चलते सुनाई दे जाने वाला शब्द बिहारी कचोटता तो है। 

लेकिन हम भुलाने की कोशिश करते रहते हैं, और हमारा बिहारीपन होली और छठ पर ही निकल के बाहर निकल के आता है। 

बाढ़ होती है, तो कोई माई- बाप नहीं होता बिहार का , सूखा पड़ता है, तो भी कोई माई - बाप नहीं, जो रहनुमा हैं राज्य के वो ठीक से भाषण तक दे के तसल्ली नहीं दिला पाते किसी को बिहारियों को। आपदा आते ही उनके ऊपर मानो आफत आ जाती है,  मुह में दही जम जाती है लेकिन अफसोस कि हम फिर उन्हें अपना रहनुमा बना देते हैं। 

आज ये जो बिहार हमने पाया है यह हमारी किस्मत से नहीं मिला है ,इसे हमने और आपने मिल के खड़ा किया है। जहाँ गुंडा गर्दी कारोबार है, वहाँ किसी  को करोबार शुरू भी करना हो तो या तो उसे गुंडा बनना पड़ेगा ,और नहीं तो उसे गुंडों के करोबार को जिंदा रखने के लिए कुछ ना कुछ घूँट पिलाना पड़ेगा। वरना किसी भी दिन आप को किसी भी सुनसान सड़क पर गोलियों से छलनी कर दिया जायेगा। 

अरे हाँ एक बात और कला और संस्कृति तो रह ही गया है,   देवघर में एक महीना तक भक्ति गीतों को गाने वाला जब सावन के बाद अपने फॉर्म में आता है ,तो उसका संगीत आपके कान को बंद करने के लिए आपको मजबूर कर देता है। और YouTube पर छाए महान गायकों ने भी बिहार की छवि को चमका के रखा हुआ है।  हम सभी कहते हैं कि हम खराब गीत नहीं सुनते लेकिन फिर करोड़ों बार देखता कौन है। 
खैर हमाम में सब नंगे हैं, कोई रेन कोट पहन के नहा रहा कोई, कोई चेहरे पर नकाब लगा के। 

लेकिन कौन कहे और किससे कहे, हमारा बिहारी guy एंड Dude कहीं नाराज न हो जाए इसलिए हमने adjustment को अपना हथियार बना लिया है, और अपनी नियति भी। 

सुबह से शाम तक न्यूज़ चैनलों पर आके चारण वंदना करने वाले नोएडा के न्यूज़ चैनलों में लगभग आधे से ज्यादा बिहार से हैं ,और शायद अपनी चाटु कारिता को उन्होंने बिहार से बाहर रहने का रास्ता बना लिया है। वो छठ- होली में आते हैं ,तो बड़ा प्रेम उमड़ के आता है, बिहार के बाढ़ में तो मानो बिहार से ज्यादा उन्हीं के आँखों में बाढ़ होता है, लेकिन कभी किसी मुख्यमन्त्री को पकड़ कर उससे यह सवाल नहीं पूछा कि ये बाहर में जो मजबूर और मजदूर बिहार की छवि है इसे तोड़ने के लिए का किये हो तुम?  
यहाँ सरकारें भी वही हैं, हम भी वहीं हैं,  गुंडे भी वही हैं, लोग भी वही हैं। या तो हम बिहार से भाग जायेंगे और कानों में पत्थर डाल लेंगे की सुनाई ना दे या फिर खुद को सम्राट अशोक के वंशज मान के शांत पड़े रहेंगे। 

खैर अभी मुम्बई में, आनंद विहार में  हम बिहारियों की भीड़ खत्म होने की आने वाले दस बीस सालों में कोई उम्मीद मुझे नहीं दिखती।  कुछ जेनरल ट्रेनें और बढ़ा दी जायेंगी ताकि पंजाब, दिल्ली, गुजरात, जाने वाले मजदूरों को तकलीफ ना हो। और नितीश जी चिल्ला के कह पाएं हमारे बिहारी भाइयों को कुछ हुआ तो....... हम उन्हें वापस अपने यहाँ नहीं आने देंगे, क्योंकि हमारे यहाँ तो मोबाइल के टार्च जला के आपरेशन किया जा रहा आज कल। 

और ऐसा नहीं है कि यहाँ सभी मजबूर और मजदूर ही हैं, यहाँ सम्पति और पैसे के मामले में ऐसे भी लोग हैं जो दस बीस गाँव खरीद लें, लेकिन वे यहाँ नहीं कुछ कर के  नोएडा, गुरुग्राम, मुम्बई, दिल्ली जैसी जगहों पर रिहायशी सोसायटी के मालिक हैं।  शायद उनके अंदर का भी बिहारी बिहार से डरने लगा है। हर सरकारी और गैर सरकारी कंपनी में बड़ी से बड़ी पोस्ट पर भी आपको बिहारी मिलेगा लेकिन वह भी टीस से मरता हुआ मिलेगा आपको और एक समेट चुका होगा अपने को एक दायरे में, एक दीवार उठा चुका है वह अपने इर्द गिर्द। यह दीवार वह ध्वस्त करता है कुछ दिन के लिए,जब गर्मियों की छुट्टियों में उसे अपने गाँव आना होता है। अपना छुट चुका बिहार का बीत चुका बचपन याद करना होता है। या फिर अपने बच्चों को पुराने घर में आँगन का मतलब बताना होता है। 

खैर चलते चलते, 
तो बिहार के और बिहारी के खेल का जिम्मेदार कौन है,
हम और आप और कौन?

हमीं पर हमारे कत्ल का इल्जाम भी आयेगा, 
गुनाहगार हैं हम और सजा हमें ही सुनाना है।