हम देखनी
के उ कुछ मांगत रहे
शायद उ कूछ मागते रहे
मईल , पुरान, फाटल कपड़ा के टुकड़ा में लिपटल
लाज से मारल सिकुडल तन रहे
आंसू से भरल नयन रहे ..
उ भूख के आग में जलत रहे
परकिरती के क्रूरता में पलत रहे
इन्सान के जानवर में बदलत रहे
इंसानियत के इहे बात खलत रहे ...
आपना मईल फाटल कपड़ा से अपना तन के ढंकत रहे उ
पेट क खातिर ही सही हाथ सब के आगे पटकत रहे उ ..
अदम्य क्रूरता के हद के परतीक रहे उ नारी
दुसहासी रहे या रहे भूख के मारी
लोग कहा रहे ओकरा के दूर हट रे भिखारी ...
दूसरा ओर हम जवन देखनी
समाज भी भूखाइल रहे
का पेट के ????
ना ना वासना के
उ मांगत रहे वासना के भीख
समाज के आँख में दया भी ना रहे
लोक- लाज और हया भी ना रहे
उ चलावत रहे फब्तीय्न के तीर
जवन बढावत रहे कलेजा के पीर
उ हंसत रहे दोसरा के बेबसी पर
दोसरा के तड़प पर
और शायद अपना असमर्थता और कायरता पर भी
आज हम सोच तानी
का बस एगो हम हीं रहनी ओकरा सहायता के अधिकारी ???
के रहे भिखारी ?
के रहे भिखारी ?
उ समाज आ कि उ लाचार बेबस नारी ?
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