रविवार, 7 जून 2020

तकलीफों की आह में,

तकलीफों की आह में,
शिकन की पनाह में ,
गुमनाम सा कभी ,
महसूस होता है,
ढूंढता हूँ कभी खुद को,
मुझ में,
या फिर मुझ को,
खुद में तलाशता हूँ !
बिखर रहा है कुछ,
समेट रहा सब कुछ,
लेकिन फिसल रहा है,
कुछ !
मानों रेत की मानिंद ,
भीड़ से डर लगता है,
सन्नाटा कौंधता है,
मानों मस्तिष्क ना हो,
कोई कथाकोविद हो,
कह रहा कुछ ,
और गढ़ रहा हो कुछ,
उलझनों की तारों में ,
तलाश कर रहा हो,
एक मंजिल इस नश्वर दुनिया से परे !