रविवार, 14 जून 2020

हिन्दू धर्म vs संत


धार्मिक मान्यताएँ हमेशा ही धर्म के उत्कर्ष या उत्थान के लिए एक आवश्यक अंग की तरह से देखा जाती रही हैं ! और इन मान्यताओं के प्रचार प्रसार के लिए आदिकाल से ही धर्म प्रचारक, सन्त ,धार्मिक गुरुओं की महत्ता रही है ! लेकिन कालांतर में जैसे-जैसे समय बदल रहा है , हिन्दू धर्म में प्रचारकों, संतों गुरुओं की जगह दोयम दर्जे के मानसिकता वाले व्यक्तियों ने ले लिया और यह आज भी निरंतर जारी है ! हमने या आपने कभी कारण ढूंढने की कोशिश नहीं कि हमने अपनी मानसिकता बदलना जारी रखा !
हमने पहले एक संत देखा अनुयायी बने, फिर जब उसने धोखा दिया तो हमने दूसरे में सन्त देखा फिर उसने धोखा दिया तो हम तीसरे में देखने लगे और यह अनवरत जारी रहा ! और इसका फायदा उठाया है धार्मिक व्यापारियों ने , उन्हें हमारी धार्मिक आस्था और मानवीय आस्थाओं में एक बड़ा व्यापार दिखा , और हम उन्होंने हमें उस व्यापार में उपभोक्ता की तरह देखा , और बाकी व्यापारों में जिस तरह से उपभोक्ता शिकार होता है , हम भी शिकार होते चले गए ! और इन धार्मिक व्यापारियों का वर्चस्व कुछ इस तरह से रहा कि जो वास्तविक सन्त या प्रचारक थे वो या तो गौण होते गए या फिर उन्हें ख़ुद को गौण करना पड़ता रहा !
और धार्मिक उपभोक्तावाद के इस बाज़ार का खेल किसी बड़े नशे के व्यापार से भी ज्यादा बड़ा रहा है, इसमें किसी हम इस कदर जकड़ जाते हैं कि हमें इस बात का आभास भी नहीं रहता है कि हम जिसे अपना आराध्य सन्त मान रहें हैं उसका भूतकाल कैसा रहा है ! हम झुंड के भेड़ों की तरह चरण वंदन में इस कदर धन्य महसूस करने में व्यस्त रहते हैं कि वास्तविकता से हमारा परिचय भी नहीं हो पाता है ! और वही आराध्य जब किसी मुकदमे, या किसी व्यभिचार वाले केस में फंसता है तो हम अपना माथा पीटते हैं ,क्योंकि हमारे पास अपना माथा पीटने के सिवा कोई और चारा भी नहीं रहता है !
लेकिन ये ऐसे ही नहीं होता, होता कुछ यूं है कि हमारे पास अच्छे सन्त और छद्म सन्त दोनों होते हैं लेकिन सच के संत को भीड़ से मतलब नहीं होता तो हमें मार्केटिंग के तहत जिसका मार्केट वैल्यू ज्यादा दिखाया जाता है हम उस तरफ मुड़ जाते हैं !
हम यह नहीं सोच पाते कि जो वास्तव में सन्त है उसे महँगी गाड़ियों, अरबों के बंगलों, महंगे कपड़े, महंगे उपहारों और चढ़ावा, टीवी चैनलों पर महिमामंडन की आवयश्कता क्यूँ क्रमशः