कृष्ण कहते हैं
"यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें। "
साथ ही एक जगह कहते हैं
"सुने को साध न सकता है,
तु मुझे बांध कब सकता है,"
जो बात दिनकर के कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था, आज शायद वही बात प्रकृति हमसे तो नहीं कहना चाह रही है ।
कि ऐ दुनिया को मुठ्ठी में बांधने की कोशिश करने वाला इंसान रुक जा ठहर जा।
अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ, सारी दुनिया एक सन्नाटे से गुजर रही है। हम अपनी तमाम शान ओ शौकत, अपनी अच्छाई बुराई, किसी के प्रति अपना स्नेह, किसी से दुश्मनी, किसी से इर्ष्या आदि को भूल बैठे हैं। थमे हुए हैं रुके हुए हैं, और देख रहे हैं प्रकृति और मानव का युद्ध मात्र।
हमारी पैसे और धुआँ उगलती, मानव को सिर्फ कोयले, मशीन , कच्चे माल के ही जैसी सिर्फ संसाधन समझने वाली फैक्ट्रियां थमी हुई हैं। हमारी मुख्य जरूरत में स्वास्थ्य, रोटी और आश्रय शामिल है बस । लाखों करोड़ों की चमकदार गाडियाँ खड़ी हो गयी हैं। लाखों की घड़ियाँ रुक गयीं हैं , अलमारी की किसी दराज में पड़ी हुई टिक टिक कर रही हैं, हमारे समय का बोध कराते हुए।
हमारी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं, हमारी दुश्वारी से ज्यादा हमें स्वयम के एकाकीपन से डर सा लगने लगा है।
लेकिन इस समय को लेके यह सोचना होगा कि क्या यह वक़्त हमसे कुछ कहना तो नहीं चाह रहा है।
प्रकृति एक बड़े समय से हमसे कुछ माँग रही थी शायद ! जिसकी आवाज को हमने नहीं सुना। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह हमसे छीन लेने को मजबूर हो गयी।
पिछले साल आस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग , कुछ साल पहले भारत के केदार नाथ में हुई त्रासदी और उससे पहले के सालों में दुनिया के कई हिस्सों में हुई बड़ी घटनाओं और इस साल वैश्विक स्तर पर इस महामारी की मार हमसे कुछ कहना तो नहीं चाह रही है ? हमने उससे कुछ छीन तो नहीं लिया जो उसने अपने लिए रखा था?
यह एक अलार्म तो नहीं, एक लाल झंडी तो नहीं ठहराव के लिए ? प्रकृति यह तो नहीं कहना चाह रही भागते हुए मनुष्य से कि रुक जा चिल्ल कर थोड़ा सा फिर चलना, यह यात्रा मैंने ही तो दिया है, तो रुक तो जा।
हमने जब चाहा जो चाहा किया, हमने समझा ही नहीं, सोचा ही नहीं कि हम जो कंक्रीट के जंगल बना रहे ,इसका हमें कभी न कभी तो कीमत तो चुकाना होगा। हम चुका नहीं पाए प्रकृति ने हमसे वसूल लिया है।
विभिन्न जगहों पर ,अलग अलग देशों की पृष्ठभूमि अलग, भौगोलिक स्थितियाँ अलग , लोग अलग, लोक अलग , संस्कृति अलग थी, जिसे शायद प्रकृति ने अपने हिसाब से सँवारा था।
लेकिन वाह रे इंसान भूमंडलीकरण / ग्लोबलाईजेशन के जिद में हमने सब रौंद डाला । हमने इंजन बनाये, उसमें ईंधन डाला और लाँघ दिया हजारों मील बस चंद घंटों में। उसी इंजन में एक मशीन लगाया और काट दिया लाखों पेड़ चंद घंटों में। क्योंकि हमें जंगलों को काटना था और इको पार्क बनाना था , पैसे पैदा करने वाले स्काई स्क्रेपर बनाना था । यही नहीं हम इतने पे कहाँ रुक जाते, हमने डायनामाइट लगाया और उड़ा दिया पहाडों को चंद धमाके से और प्रकृति पर अपनी जीत को उसी पहाड़ के सीने पर,हिल स्टेशन पर सात सितारा होटल में सेलिब्रेट कर डाला
कहीं यह उन्हीं सेलिबरेशन की वसूली तो नहीं।
हम ही ब्रह्म हैं के भरम में पड़े-पड़े हम भूल बैठे थे, कि कोई है जो सर्वोपरि है, कोई है, जो हमारे इस खेल पर नज़र रखा है। लेकिन नहीं हमें तो सुपर पावर बनना है। जो उसने हमें दिया हमने उसी का प्रयोग कर के बम के धमाके किये, न्युक्लियर खेल खेला यह साबित करने के लिए कि जब भी विध्वंस का खेल होगा तो हम ही ज्यादा भयानक और विध्वंसक होंगे और हमारा परचम लहरा उठेगा।
हमने प्रकृति की सता को धता बताते हुए वो सारे खेल खेले जिससे हम उसको मुह चिढ़ा सकें । लेकिन जो हमारा निर्माता है विध्वंस का सर्वधिकार उसी के पास सुरक्षित है, आज का वक़्त कहीं यही तो बताने को नहीं आया है।
कहीं यह एक संदेश तो नहीं, उस नहीं दिखने वाली शक्ति का कि ब्रह्म मैं हूँ, तुम नहीं ,इस लिए रुक जाओ, ठहर जाओ, रुकते हुए चलो नहीं तो अंजाम बुरा होगा।
हमारे बीच के युद्ध के तमाम मुद्दों जैसे कौन बड़ा, कौन छोटा , कौन अमीर , कौनगरीब, कौन उच्च कुल का, कौन निम्न कुल का, कौन किस जगह का ,कौन किस जमीन का, कौन किस भाषा वाला, कौन किस दल वाला, कौन किस धर्म वाला, कौन किस जाति वाला जैसी बातों से नाराज तो नहीं हो गया वह।
या फिर वह हमारी मरती हुई संवेदनाओं को जगाना चाहता है, भूखे प्यासे को देख कर हमारी कम होते भावों को तो वह जिंदा नहीं करना चाहता है।
मृत्यु को देख कर उसके प्रति हमारे कम होते जिजीविषा और उद्दीपन को वह दुबारा मजबूत तो नहीं करना चाहता।
या फिर भाग दौड़ की जिंदगी में वह हमें ऐसा समय देना चाहता है ,जब हम भाग दौड़ में से निकल कर मानवता के करीब आयें । या वह भौतिक संसाधनों को जुटाने में उसके उपभोग को भूल बैठने की बात याद दिलाना चाह रहा है। वह सम्बन्धों पर बैठ गयी काई को साफ कराना चाह रहा है। वह खत्म होते पारिवारिक मूल्यों, मानवीय मूल्यों को सहेजने , संवारने और उन्हें पुनर्जीवित करने के साथ हमारे अंदर के मनुष्य को मजबूती देना चाहता है। वह बताना चाह रहा सामंजस्य नितांत आवश्यक है।
पुन:
कृष्ण कहते हैं, जो हुआ अच्छा हुआ जो हो रहा है ,वह भी अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा।
सर्वे भवंतु सुखिनः....