मंगलवार, 9 जून 2020

किरदार

कुछ इस क़दर मिरा भी किरदार यूँ रहा,
जम्हूरियत भी मेरी ,गुनाहगार भी मैं रहा,
यूँ हाथों में खूं से सना खंजर भी नहीं था,
जाने क्यूँ फिर यूँ तलबगार भी मैं रहा !
खबरनवीसों ने छापी कहानी सियासत की,
हर हर्फ़ मैं ही था ,अख़बार भी मैं रहा !
यूँ खूब बचाया हमने इस कूच-ए-दरिया में,
उस बार भी मैं ही था और इस बार भी मैं रहा !

अंदर का आदमी

बचपन की बातें अब भी याद हैं,
एक कोने में पड़ी पुरानी किताब है,
आदमी बनना था बड़ा एक दिन,
आदमी ही आदमी अब ना रहा,
बालपोथी के ककहरे ,
अब नहीं मुझे याद है,
आज उन्हीं अलमारियों में,
खोजता हूँ स्वप्न अपने,
फिर से वो जुनून खुद में,
देखने की कोशिश में हूँ,
दीमकों के खाये हुए पन्नों में ,
बचपन ढूंढता हूँ,
आदमी बनने से अब ,
डरने लगा हूँ जाने क्यों,
छोटा रहना मुझे अब ,
जाने कब से आ गया है,
या मेरे अंदर का आदमी,
उस बड़े आदमी को खा गया है !