रविवार, 31 मई 2020

आदमी में अब भी इंसान बाकी है ?

जलजला है चारों तरफ ,
एक टूटा हुआ मकान बाकी है,
लगा के टोपी , लगा के टीका ,
कुछ लोगों की दुकान बाकी है,
भूख से मर गए कुछ लोग भी,
अब भी क्या एहसान बाकी है ?
एक तरफ सन्नाटा है,खामोशी है,
अभी कब्र और शमशान बाकी है,
आदमी आदिम हुआ जाता है,
आदमी- आदमी नहीं रहा,
ताज्जुब है आप कहते हो ,
साहब !
आदमी में अब भी इंसान बाकी है ?

शनिवार, 30 मई 2020

दर्द किधर है ?

छिपाना क्या है,छापना क्या है,
ये हर अख़बार को पता है,
लूटना किसको है, लूटना कैसे है,
ये हर सरकार को पता है।
किधर है खामोशी ,चीख किधर है ,
ये बात हर दीवार को पता है,
वो मुस्कुराता तो है ,
मौत से लड़कर,
दर्द किधर है,
ये सिर्फ बीमार को पता है।

सभी के हाथ खंजर है

जो महफ़िल उठ गई एक बार ,
कोई दिखाई नही देता ,
कैसे सब चले गए ,
क्यूँ दिखाई नही देता
सभी के हाथ में हैं खून,
सभी के हाथ खंजर है,
सभी खामोश हैं चुपचाप,
पर कोई सफ़ाई नही देता !

आईने से डरता हुँ

तस्वीरों ने दिया धोखा,
मै आईने से डरता हुँ।
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जो झूठ बोला खुब ,तो सर पे बैठाया सबने ,
जो बोल दिया सच तो गुनाहगार हो गया।


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गफलतों में हम रहे और वायदे में खो रहे,
कायदे के लोग जो थे, फ़ायदे में वो रहे ।।


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सब बिके ,मैं ना बिका, जिस दिन सरे बाज़ार में,
देखने लगे हैं लोग तब से , कमियाँ मेरे क़िरदार में ।।



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बेचते- बेचते ही बाजार खुद बिकने लगा,
कीमतें घट गयीं, अख़बार खुद बिकने लगा!


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करना क्या है मुझको अख़बार से,
हूँ मैं वाकिफ अपने किरदार से ।।


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शुक्रवार, 29 मई 2020

यातायात नियम पर अन्तिम पोस्ट /बकवास...


पक तो गये होंगे आप
सबको यह लग रहा होगा कि भाई जुर्माना लगने पर इतना पगलाने की क्या जरुरत तो कुछ बात समझने वाली है:-
मैने जब देखा कि पटना के पुल पर एक बुजुर्ग को इन नियमों की वजह से कोई सिपाही लगातार थप्पड मार रहा तो नफरत हो गयी इस सिस्टम से और जो लिख रहा हुँ आहत होकर लिख रहा हुँ! और अब इस पर लिखूंगा भी नहीं क्युंकि मुर्दों के देश में गुंगे और बहरों की ही जरुरत है।
खैर
1.आप किसी भी शहर में रहते हों किसी दिन घर से जरुरी काम से निकले और चौराहे से थोड़ी दुरी पर गये कि आपको साइड कर दिया जायेगा, आप अपना हेलमेट लगाए हुये देखियेगा, VIP के नाम पर कुछ गुंडे टाइप लोगों के साथ अगली सीट पर आपके इलाके के सांसद महोदय या विधायक बिना बेल्ट लगाये आगे बढेंगे और पीछे बिना हेल्मेट लगाये झण्डी लगाये उनके समर्थक ! और वही पुलिस वाले लोग जिनसे डर के और ज्यादा तर अपनी सुरक्षा में हेल्मेट लगाये आप खड़े होंगे उनको सैल्युट करेंगे और थोड़ा ज्ञान दिजियेगा उन लोगों को भी कि ये सुरक्षा के लिये है , भाई साहब अगर उन्होने आपका थोबडा का ईलाज ना कर दिया तो कहिएगा।
और फिर आप उन्हीं की वजह से ऑफ़िस लेट जायेंगे, वहाँ आप कोई ज्ञान नहीं दे पायेंगे।
गुस्सा नहीं , सोचिये जरा जुर्माना आप ही भरेंगे वो नहीं।
2. आपको किरण बेदी कहीं ना मिलेंगी जो इन्दिरा गाँधी का चालान काट दे।
3. MP/VVIP लिखा होगा तो राष्ट्रपति भवन के सामने से निकल जाईये बिन सीट बेल्ट लगाये कोई देखते हुये भी नहीं बोलता है और वहाँ मरने वाला डर का ज्ञान नहीं देता कोई ।
यह खुद का अनुभव है मेरा।
4. और जो पहले सीट बेल्ट लगाते थे वो अब भी लगाते हैं लेकिन पहले टारगेट मिलने पर पुलिस पेपर वालों को छोड देती थी अब उन पर खतरनाक driving का कानुन लगा देगी। और आप के पास कोई मीटर नहीं होगा यह साबित करने को।
5. अभी 2-4 दिन हुआ है और आपको पुलिस का लोगों को मारने पीटने का वीडियो हर तरफ दिख रहा है यह कम जुर्माने के समय में नहीं था या था तो कम था।
6. आप युरोप में नहीं रहते कोई, आप कई ऐसी जगह रहते हैं जहाँ एम्बुलेन्स नहीं पहुंचती, कल्पना किजिये रात को अचानक से आपके पिता /माता/ बहन/भाई किसी की तबियत खराब हो गयी, और आप और आपका कोई भाई मरीज को बीच में रख के ले जा रहे ये भी मान लिजिये कि सबने हेल्मेट लगा लिया तो वहाँ अचानक से आपको पुलिस ने रोका आपने अपनी बात बतायी।
अगर वो दयावान निकला तो ठीक वरना आप 5000 का फ़ाइन देंगे या दवा का पैसा देंगे।
7.कल अगर कोई आटो वाला आपसे 10 किलोमीटर के 10 हजार माँग ले तो गुस्सा मत करियेगा, क्युंकि रोज का दो हजार कमा कर वह किसी सिरफिरे SI या हवलदार जब उसे 30 हजार का जुर्माना लगायेगा तो नहीं भर पायेगा। और दिल्ली में रहने वाल आटो वालों से पूछियेगा वो सच बता देंगे आपको कि उन्हे कब कब और कहाँ जुर्माना भरना होता है।
साहब आप ज्ञान देते हैं पेपर बना के रखिये हेल्मेट लगा के रखिये कि सब कुछ ठीक हो जाये लेकिन यह ज्ञान आप पर नहीं सामने वाले उस सफेद या खाकी के मूड पर पहले भी निर्भर था अब भी निर्भर है।
और आप उस देश में हैं जहाँ अभी लोग जीने की लडाई लड़ रहे , गड्ढे में बसे देश में पहले ईमान की शिक्षा दिजीये, फिर इंसानियत की शिक्षा दिजीये। ऐसी स्थिति लाईये कि हर किसी को एक गाडी नसीब हो कि तीन को एक साथ चलने को मजबुर ना होना पड़े। हर गाँव तक बस की सुविधा किजिये।
और नहीं तो भाँग पी कर नियम ना बनाईये।
जहाँ फ़्री में जन धन योजना खुलवाने का नियम चला के मूर्ख बनाये उसी मूर्ख जनता से 5000-10000 हजार का फ़ाइन लगा के सबित क्या करना है।
उनके सुरक्षा की चिन्ता तब कहाँ मर जाती है जब बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन से बचे मर जाते हैं, मुखमरी और कुपोषण से लाखों लाशें बिछ जाती हैं।
कितने करोड का जुर्माना लगना चाहिये जब 72 की सीट पर 700 लोग यात्रा करते हैं और किस पर?
सांसदो विधायकों मन्त्री संत्री के ट्रेन- प्लेन में चलने और उनके जीने का खर्च कब तक जुर्माने के रुप में हमसे वसुलोगे?
सिर्फ इसलिये कि आपको हमने/सबने बहुमत दिया आप हमारा खून निकाल लेंगे?
सिर्फ इसलिये आप हमारा गर्दन दबायें और हम आपको शाबाशी दें कि आपको हमने वोट दिया है।
और इन आततायियों के फरमानो की तारीफ़ करने वालों के लिये प्रार्थना है
भगवान ना करे कभी रगड़े जायें और ज्ञान हो जाये।
पटना के उस बुजुर्ग के गले पर पुलिस वाले की उंगलियों के निशान क्या कभी मिट पायेंगे उनकी जगह अपने बाबु जी या खुद को रखें और सोचें।
बस यही।

सोमवार, 25 मई 2020

ख़बर

ख़बर देने वालों की ख़बर जो छपी तो,
ख़बर देने वाले बाख़बर हो गए अब..
ख़बर को ख़बर की ख़बर जो हुई तो,
ख़बर ने कहा थोड़ा ख़बरदार रहिये..

रविवार, 24 मई 2020

वट वृक्ष


सिकुड़ चुके हैं, 
वट- वृक्ष, 
बोन्साई हो गये हैं, 
ये बड़े पेड़, 
सिकुड़ गए परिवार, 
सिकुड़ गए दायरे, 
और सिकुड़ चुके लोगों को देख, 
ये भी सिकुड़ गए हैं, 
शहर के बाहर, 
या फिर गाँव के  किसी, 
खलिहान में हुआ करते थे, 
अभी भी हैं कहीं- कहीं 
बाप दादा 
जहाँ अभी 
हिस्सा हैं परिवार के, 
वहाँ हैं ये बरगद , 
और उनकी जड़ें भी

लेकिन शहर की तरफ, 
बढ़ते हुए  , 
इन पर असर हो गया, 
शहरीपन का, 
अब ये  गमले में उगते हैं, 
फ्लिपकार्ट और अमेजन पर, 
नीलाम होने लगे हैं, 
बिग बाज़ार में बिकने लगे,
और फिर दम तोड़ने लगे हैं, 
किसी फ्लैट के, 
किसी कॉरिडोर में, 
किसी किनारे के, 
प्लास्टिक वाले गमले में, 
और गिने जाने लगे हैं इनके पते, 
हर वट-सावित्री वाले त्योहार पर, 

और
सिमट चुके हैं ,
गाँव भर को छाँव देने वाले, 
बरगद अब सजावटी हो गए हैं, 
और ढूंढने लगे हैं, 
छाँव खुद  ही ! 

शुक्रवार, 22 मई 2020

सच की चाशनी

झूठ बोलें अगर मजबुरी है, या फिर जरुरी है ,
पर सच की चाशनी में डूबाना क्या जरुरी है



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कुछ बोलते नहीं हो खामोश रहते हो,
साहब देश में आप की ही सरकार तो नहीं ?


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शनिवार, 16 मई 2020

पाताल लोक ( Paatal Lok)

पाताल लोक, Web Series

अपराध हमारे चारों ओर है ,और पाताल लोक भी हमारे इर्द गिर्द ही कहीं l और इस वजह से इसे षड्यंत्रों और अपराध की गाथा कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है l

अपराध की गाथा बिना गाली के लिखी तो जा सकती है ,लेकिन उसे कहने के लिए ये गाली नितांत आवश्यक होती है, और परदे पर उसे दिखाने के लिए  यह लाजिमी हो जाता है l

प्रॉशित रॉय और अविनाश अरुण धावरे  ने सुदीप शर्मा लिखित अपराध की गाथा को कितने संजीदा तरीके से कहलवाया है ,कि आप अपराध के तिल्सम में डूब जाते हैं l

एक अपराधी के प्रति आप न्यूट्रल महसूस कैसे करने लगते हैं आपको पता ही नहीं चलता l

बात करते हैं कहानी की..
दिल्ली की ऐसी तस्वीर जिनसे हर कोई रोज रुबरु होता है ,लेकिन वह उस पर ध्यान देने से बचना चाहता है.. या फिर ध्यान नहीं देना चाहता.. आप रोज ऐसे बचपन को देखते हैं ,जो आगे जाके चिन्नी बन जाने का रास्ता अख्तियार करते हैं l 

कॉर्पोरेट अपराध या अपराध का कॉर्पोरेट कैसे और कितना फैला हुआ है ,इसे महसूस करते हुए आप कुछ अजीब सा  महसूस करते हैं, एक क्राइम को कैसे किसी और रंग में बदला जाता है, इसे आप देख लेते हैं l

इसे हाथी राम चौधरी की कहानी कहें या संजीव मेहरा की या फिर विशाल त्यागी की यह जवाब तो आप देख कर महसूस कर पाएंगे l

अपराध की दुनिया में हर एक अपराधी का एक अतीत होता है l वह हैवान में बदलने से पहले उसी अतीत का हिस्सा होता है, या फिर शौक से उसे चुनता है..l  लेकिन हर अपराधी का एक ऐसा कोना होता है , जिस कोने में वह अपराधी नहीं होता, चाहे वह चिन्नी हो, तोप सिंह हो,  हथौड़ा त्यागी हो या फिर चन्दा हो l 

यूँ कहें कि सिस्टम से अपराध है ,या फिर अपराध से सिस्टम या फिर दोनों एक दूसरे के सहारे चलते हैं, इसको समझाने की कहानी है पाताल लोक l 

एक तरफ हाथी राम चौधरी है ,जो इस पाताल लोक में वराह बन कर कूद पड़ता है, और पाताल लोक की गहराई में उतरता जाता है, और इस महाजाल के परतों को उधेड़ते हुए एक तरफ खुद के वजूद से लड़ता है तो एक तरफ अपनी पारिवारिक समस्याओं से l
उसके आंतरिक द्वन्द और कर्तव्य निष्ठता को उसके एक डायलाग से समझा जा सकता है, जब चित्रकूट में वह कहता है 
"  सर आधी जिंदगी बाप की आँखो में देखा है कि उसका बेटा चुतिया है, बाकी की जिंदगी में बेटे की आँखों में नहीं देखना चाहता कि उसका बाप चुतिया है ! " 

हाथी राम के इस धर्म युद्ध में उसकी पत्नी  और उसके बेटे का होना हाथी राम के दूसरे पक्ष को दिखाता है जिसमे एक तरफ उसका बेटा भी अपराध की दुनिया का हिस्सा बनते-बनते बचता है l गुल पनाग ने पत्नी के किरदार को बहुत बेहतरीन तरीके से निभाया है.. 

जयदीप अहलावत हाथी राम का किरदार निभाते हुए आपको यह एहसास कराता है कि आप हाथी राम को देख रहे जयदीप को नहीं l 


दूसरी तरफ संजीव मेहरा प्रतिनिधि है, तथाकथित स्वर्गलोक का l जो सिस्टम के खेल और खिलाडी वाले पैटर्न में अपनी महत्वाकांक्षा को ज्यादा अहमियत देता है l  संजीव मेहरा के रूप में तथाकथित बड़े लोगों का छोटापन और न्यूज़ रूम के बड़प्पन को तार -तार करते हुए सिस्टम के खेल को दिखाया गया है l संजीव मेहरा के हमेशा ऊपर रहने की ख्वाहिश का शिकार होती है उसकी पत्नी डॉली l 
डॉली का किरदार निभाते हुए स्वस्तिका के शांत अभिनय को आप साथ लेके चलते हैं, और संजीव का स्वस्तिका के प्रति उदासीनता और संवेदन शीलता का शून्य होना, स्क्रीन पर डॉली के प्रति आपकी संवेदनशीलता को मजबूत करते जाता है l  इस तरह के रोल हमेशा ही चैलजिंग  रहते हैं, और इस वजह से स्वस्तिका मुखर्जी को पुरे नम्बर मिलने चाहिए.. 

यहाँ संजीव मेहरा के रूप में नीरज कबी ने भी बाजी मारी है, संजीव मेहरा की ऐंठन  ही नीरज के अभिनय की सफलता है l

अब जब गाथा अपराध की हो तो  बात हथौड़ा त्यागी की भी जरूरी है,  हथौड़ा त्यागी और विशाल त्यागी में कौन बड़ा है यह जानने के लिए आपको  परिवर्तन के दौर से गुजरना होगा.. 

विशाल त्यागी के रूप में अभिषेक बनर्जी को देखते हुए आप कई बार महसूस करते हैं कि आप किसी रंग मंच के सामने दर्शक दीर्घा में हैं ,जहाँ मंच पर एक अभिनेता खड़ा है बिना कुछ कहे l लेकिन उस पर पड़ती लाइटों के बदलने पर भी  वह खुद को संभाले रहता है  l और अंत में आप को उस खलनायक बने नायक से प्रेम हो  उठता है और अंत में वह दर्शकों का स्टैंडिंग ओवेशन  लूट लेता है .. एक बेहतरीन खलनायक को और क्या चाहिए.. 

सस्पेंस की कहानी कहें तो कुल मिलाकर कहानी ऐसी कि एक मिनट नजर हटी तो आप पटरी से उतर जायेंगे

अपराध के इस महाजाल में चित्रकूट का क्या कनेक्शन है?  दिल्ली की कहानी में चित्रकूट और पंजाब क्यूँ? धर्म क्यूँ? 
 दुनलिया और गवाला गुर्जर कौन हैं? मास्टर जी कौन हैं?  अनूप जलोटा को वाजपेयी वाला रोल क्यूँ है ? 

यह जानने के लिए आपको देखना होगा "पाताल लोक " 



डार्विन की मौत


लोग बदलते हुए, 
आदमी हो गए, 
कीड़े से शुरू हुई थी, 
जिंदगी शायद, 

जो बच गया वो बच गया, 
आने वालों के लिए, 

साथ जो लाया था, 
उसे छोड़ दिया ,
आने वालों के लिए, 

आज फिर बदल रहे हैं, 
आदमी से कीड़े हो गए हैं, 

सामाजिक प्राणी है इंसान, 
ऐसा भी लिखा था कहीं, 
नागरिक शास्त्र की ,
किसी किताब में उसी समय 
जब विज्ञान की किताब में, 
डार्विन को पढ़ रहे थे , 

आज इंसान
सामाजिक जानवर हो गया है, 
शायद! 

बदलाव को देख कर, 
आज डार्विन, 
फ़ांसी लगा लेता, 
विकासवाद को इतना भय में देख कर! 

डार्विन की मौत पर, 
गूंज जाती तालियाँ! 

डार्विन बच जायेगा , 
अगर कह देगा, 
कि इंसान और कीड़े में कोई फर्क नहीं, 
फिर नहीं होगी मौत उसकी, 

वरना निश्चित है, 
डार्विन की मौत! 

गुरुवार, 14 मई 2020

लड़ाई

लड़ते दोनों हैं, 
वो बिस्किट के लिए, 
आप सत्ता के लिए, 

लड़ते दोनों हैं, 
आप देश चलाने ले लिए , 
वह, 
देश में जीने के लिए, 

याद होगा आपको, 
चुनाव में आप, 
उसके घर जाके, 
खाते थे, 
तब आप भूखे होते थे, 
उसके वोट के लिए.. 

आज लौटा दीजिये, 
उसको, 
जो आपने चुनाव में उसके घर खाया था, 
उसका हिसाब कर दीजिये, 
आज वो भूखा है, 
पेट का.. 

कल आप मोहताज होकर उसकी तरफ देख रहे थे, 
आज वह ताक रहा है, 
आपकी तरफ, 
उसे अपना हिसाब बराबर करना है, 
और आपको उसके नमक का हिसाब, 

उसे उम्मीद है, 
आप अभी भी नमक हलाल जरूर होंगे .. 

©"माहिर"

बुधवार, 13 मई 2020

मैं रोटी हूँ.. !



मैं रोटी हूँ.. 
जी सही सुना आपने, एक रोटी l वही रोटी जो कभी एक पुरानी फिल्म में कपड़ा और मकान के साथ आकर उसे एक ब्लॉक बस्टर बना दिया था.. लेकिन मै सिर्फ आटे से नहीं बना हूँ, मैं बना हूँ, किसान के पसीने से उसकी उम्मीद से, उसके जज्बात से खेतों में लहललाते उसकी उम्मीद से भी.. 

यही नहीं मै वही रोटी हूँ, जो अपनी यात्रा तय कर के किसी फाइव स्टार होटल में एक सौ बीस रुपये में बिक जाता हूँ, बिल्कुल वैसे ही जैसे आज कुछ लोगों का ईमान बिक रहा है.. 

और मै वह रोटी भी हूँ, जो अपनी यात्रा के ग्लैमर से वंचित रह कर किसी सड़क किनारे रहने वाले किसी इंसान की थाली में नमक और कभी -कभी प्याज के साथ खत्म हो जाता हूँ.. 

मेरी यात्रा यूँ तो पीसने और जलने से ही शुरू होती है, लेकिन मुझे तब ज्यादा दुख होता है ,जब मेरे इस जलन के बाद मै किसी शादी बारात के कुड़े के ढेर में बिना किसी के भूख मिटाये अपनी यात्रा समाप्त कर देता हूँ. तब खुद को लज्जित और ग्लानि में महसूस करता हूँ.. 


लेकिन जानते हैं, सबसे ज्यादा मैं कब टूट जाता हूँ, तब ,जब कुड़े के ढेर से मुझे कोई उठा कर धोकर और निवाला बनाता है, दस बीस दिन के भूखे इंसान का निवाला बन के अपने रोटी होने पर मैं खुद रो पड़ता हूँ, तब मैं शर्म करने लगता हूँ कि मैं कैसे देश में, किस परिवेश में आ गया हूँ..और तब मैं जाने क्यूँ महान लोगों के देश में स्वयम के होने पर ही हीन महसूस करने लगता हूँ.. 


यूँ तो अपने द्वारा बिना भूख मिटाये जाने पर मैं हमेशा ही रोष में रहता हूँ लेकिन पिछले दिनों मैं सबसे ज्यादा दुःखी हुआ था, जब मैं ट्रेन की पटरियों पर पड़ा हुआ था l यह मेरे लिए एक दम नया अनुभव था l अभी तक मैं सड़क के किनारे, होटल के डस्टबिन , कुड़े के पॉलीथीन में फेंका जाकर भी उतना दुःखी न हुआ जितना कि मैं ट्रेन की पटरियों पर पड़ा हुआ था..
 यही नहीं मुझ पर कुछ खून के धब्बे थे.. 

मैं काफी देर तक यह समझ ही नहीं पाया कि मुझ पर यह खून के धब्बे किस चीज के थे... लोकतंत्र की हत्या के, इंसानियत की हत्या के, राजा -रंक के बीच के अंतर की हत्या के, धार्मिक उन्माद की हत्या के, विशेष और अवशेष की हत्या के. या मजदूर और मजबूर के बीच के अंतर की हत्या केके..या फैक्ट्री मालिक के मालिक होने के दम्भ की हत्या के. ? 

अभी मैं इन प्रश्नों से विचलित ही था ,तब तक अचानक से सुबह हो गयी, अचानक से मुझ पर कैमरे की फ्लैश चमकने लगी, और मुझ नाचीज पटरी पर बिखरे रोटी की किस्मत पलट गयी, मैं अब लोकतंत्र का हिस्सा बन जाने वाला था, मेरी तस्वीर पर अब डिबेट होने वाला था, चार- चार पांच -पाँच लोग अब मेरे साथ- साथ  मेरे बिखराव पर भी बहस करने वाले थे.. मेरे साथ चले और तवे से लेकर मेरी पटरी तक की इस यात्रा तक मेरे साथ रहे सहयात्रियों पर भी बहस हो रही थी.. 

लेकिन यह क्या, कुछ ही देर में बड़े बड़े लोग आ गए, कोई मंत्री कोई अभिनेता सब, वो मेरे सह यात्रियों  के शवों को देख कर बहुत दुःखी थे.. किसी की नजर में मेरे साथ मेरी इस यात्रा वाले बेवकुफ थे जिनको यह नहीं नहीं पता था कि उन्हे कहाँ सोना बैठना चाहिए.. तो किसी की नजर में वे देश के निर्माता थे, किसी की नजर में वे योद्धा थे जिन्होंने अपनी जिजीविषा को आगे रखा, तो किसी की नज़र में वे कायर थे जो लड़ नहीं पाए और मुझे साथ लेकर उस तरफ चल दिये जहाँ से वह मेरे लिए ही बड़े शहर की तरफ निकल आये थे और आज वापस वहीं जा रहे थे.. 


मुझे नहीं पता था कि मेरे साथ मुझे ढोकर लाने वाले लोगों की लाश को लोग साथ लेकर जाने वाले थे... अचानक से मैंने देखा कि उनको उठा कर लेकर जाने लगे लोग, उन्हीं पटरियों पर उनके लिए  एक ट्रेन लगाई गयी..  उन्हें उस पर रखा गया.. अब मैं खुश था कि पैदल चलने वालों की यात्रा अब ट्रेन से होगी... मैं भी थक गया था पटरियों पर चलते- चलते ... मुझे भी उम्मीद थी कि अब मुझे भी कोई उठायेगा लाद देगा मेरे सह यात्रियों के साथ... मैं अंत समय तक उनके साथ चलना चाहता था... 

लेकिन यह क्या कोई ध्यान ही न दिया.. मैं वहीं पड़ा था उन्हीं पटरियों पर.. भीड़ कम हो रही थी..मैं डर रहा था.. अपने अकेले हो जाने पर... मुझे दुःख हो रहा था गरीब की रोटी होने पर.... मुझे अफसोस हो रहा था अपनी किस्मत पर...लेकिन मैं रो रहा था उन सह यात्रियों के साथ छोड़ जाने पर और अफसोस हो रहा था... कि मैं उनके काम नहीं आ पाया और बिखर गया... 


मैं अब भी वहीं पड़ा हूँ,  उन पटरियों में..मैं खत्म हो जाऊँगा सूख कर..  काश कोई मेरी नीलामी ही करा देता... कोई तो खून से सने मुझ रोटी की वाजिब कीमत लगाता... 
मैं नहीं जानता अपना भविष्य.. लेकिन मैं अब जिंदा रहूँगा... फेसबुक, ट्विटर पर और अब मैं भूख का नहीं चुनाव का मुद्दा हूँ... 

मैं रोटी हूँ... जलना मेरी किस्मत है... मैं जिसे नहीं हासिल उसका ख्वाब हूँ... मैं सवाल हूँ.. और मैं ही हर सवाल का जवाब हूँ... 

बस यही कहूँगा जाते जाते... मुझे खून के धब्बे से डर लगता है अब..... 






शुक्रवार, 8 मई 2020

लोकतंत्र के तांत्रिक या पांचवे स्तम्भ?


माफ़ करियेगा और नहीं कर पाइयेगा तो इसे मेरा फ्रस्ट्रेशन या विक्षिप्तता समझ लीजियेगा, मुझे ठीक वैसे ही फर्क पड़ेगा जैसे चुनाव के बाद वोटर को देख कर  जीत जाने वाले नेताओं को पड़ता है.. 

अब सवाल ये कि गोया ये  लोकतांत्रिक तांत्रिक या पांचवे स्तम्भ का मतलब क्या है? ये कौन लोग हैं ? 

बल्कि मेरा तात्पर्य उनसे है ,जो अति चालाक, बहु डिग्री धारी ,अति ज्ञानी, महा मानव सिद्ध करने की कोशिश में अपनी शिक्षा के ज्ञान को अपने अति महत्वाकांक्षा के नीचे दबा चुके हैं, मानो हाथी ने चीँटी का पाँव कुचल दिया हो l

खैर ऐसे तमाम  उच्च ज्ञानी व्यक्तियों से बात करने पर आपको लोकतंत्र की नयी परिभाषा मिलती है, जिसमें लोकतंत्र व्यक्तियों का नहीं विचारों के थोपने की एक पद्धति के रूप में दिखाई देने लगता है l

ऐसे लोगों से थोड़ा भी तार्किक होने की कोशिश करने पर इनके अभिमान पर इतना चोट होता है कि ये सामने वाले के स्वाभिमान का मर्दन करने में कोई कसर नहीं छोड़ते l

लोकतंत्र की नयी परिभाषा के संदर्भ में इन्होंने ऐसा तन्त्र गढ़ दिया है ,जो थोपतंत्र के रूप में बदल चुका है, यह जब तक अपना ज्ञान आप पर थोप कर ताली नहीं बजवा लेंगे तब तक यह थोपते रहेंगे l

इनसे जैसे ही आप आम की बात करेंगे यह इमली के  गुणों का बखान शुरू कर देंगे, फिर आप जब इमली के बारे में बात करेंगे तब तक ये सेब संतरे तक पहुँच जायेंगे, समस्या यहाँ तक भी होती तो चलो अच्छा है, स्थिति तब ज्यादा खराब हो जाती है जब ये आम में से इमली का स्वाद आता है, न साबित करा लें और आप से उस प्रमाण पत्र पर आपके बिना मन के हस्ताक्षर न करा लें l

और उससे भी बड़ी समस्या यह कि इनसे दूरी भी नहीं बनाई जा सकती, आप कोशिश करेंगे, तब तक  इन्हे खबर हो जाती है ,कि आप इन्हें  इग्नोर कर रहे हैं , तो येन केन प्रकारेण यह आप से फिर से चिपक जायेंगे...इन्हें दुश्मन बनाना अच्छा नहीं लगता और मित्र ये स्वयम के भी नहीं होते l

लोकतंत्र की परिभाषा इनके लिए रायता फैलाने से ज्यादा कुछ नहीं,  इनके लिए समस्या यह नहीं कि समस्या क्या है, इनके लिए समस्या यह है कि आप समस्या को समस्या कहते क्यों है? 

भूखमरी,  बेरोजगारी , अपराध, भ्रष्टचार आदि इन्हें समस्या नज़र नहीं लगती , बल्कि इन्हें भी ये लोग लोकतंत्र का अनिवार्य अंग साबित कर के ही मानते हैं, इसके लिए जैसे ही आप इन समस्याओं पर बात करना शुरू करेंगे  कोसना ये आपको कोसना शुरू कर देंगे l

इन्हें सिस्टम की खराबी कभी खराबी नहीं लगती, इन कमियों पर बात करने वालों से इनको देश के भविष्य पर खतरा नजर आता है, ये विभिन्न दलों और विभिन्न रूपों में लगभग हर जगह पाए जाते हैं l

ये ठीक उस बीमा एजेंट की तरह होते हैं  जो किसी की मौत पर दुःख प्रकट करने की जगह मौत के फायदे गिनाने लगते हैं , और अपने विक्रेता शैली का प्रदर्शन करने से भी बाज नहीं आते I  और  ये तब तक ढीठ बने रहते हैं ,जब तक कि उन्हें कोई हिदायत ना मिल जाए l कई बार तो ये लाश को डिजरविंग कैंडिडेट तक साबित कर डालते हैं, और आप अपनी संवेदना को तार -तार होते देखते रह जाते हैं l

ज्ञान का ऐसा असीम संगम देख कर इन्हें लोकतंत्र के तांत्रिक कहना ज्यादा बढ़िया होगा, जो दावा तो हमेशा ही यह करता है कि उसी के पास लोकतंत्र की बीमारियों का ईलाज है l लेकिन  वास्तव में जब तक बीमारी असाध्य न हो जाए तब तक यह अपना दावा छोड़ते भी नहीं, और अगर एक बार  इनको ज्ञान हो जाए कि समस्या अब हाथ से बाहर है, तो इन तांत्रिकों से मिलना ठीक उतना ही असंभव है जितना लोकतंत्र में लोक का तंत्र से मिल पाना l

लोकतंत्र की समस्याओं से निजात पाने से कहीं ज्यादा जरूरी है, इन तांत्रिकों से निजात पाना l इनसे तार्किक होने से ज्यादा जरूरी है सतर्क होना l लोक तंत्र के इन पांचवे स्तम्भों से शायद इतना ज्यादा खतरा है जितना कि बाकी सारे तंत्रों से नहीं l 
सावधान रहें सुरक्षित रहें का नारा शायद इन्हीं तांत्रिकों के लिए बनाया गया है l

इति लोकतंत्र : 




गुरुवार, 7 मई 2020

कोरोना का डर और मदिरालय की पीठ पर सवार भारतीय अर्थव्यवस्था

नशे में कौन नहीं है यहाँ, बताएं जरा.... 
नशा शराब में होती तो नाचती बोतल.... 

बात शुरू करते हैं कि शराब क्यूँ जरूरी है, लेकिन इससे पहले सभी मदिरयोद्धा , मधु शुर आदि लोगों  के  चरणों में सादर प्रणाम, साथ ही यह अफ़सोस कि हम जैसे तमाम तुच्छ लोगों ने उन्हें बेवड़ा कहा, दारूबाज कहा, पियक्कड, नशेड़ी कहा जिनकी अहमियत सिर्फ हमारे अर्थ शास्त्री और सम्मानित नेता गण ही समझ पाए.. 

और मैं सम्पूर्ण भारत की तरफ से उन ठेके पर युद्धरत योद्धाओं  के चरणों में नमन करता हूँ और सैल्यूट करता हूँ.

साथ ही मै यह चाहता हूँ कि सभी शराब योद्धाओं  को आधार कार्ड के तरह का ही एक कार्ड बनाया जाए और उन सभी को  यह कार्ड लॉकडाउन के दौरान ही हर ठेके के पास किसी बड़े अफसर के द्वारा दिया जाए और साथ ही इस कोरोना युद्ध में इस अभुतपूर्व योगदान के लिए  उन्हें पर्शस्ति पत्र भी दिया जाए.

यही नहीं इस युद्ध में जिस हिसाब से जो जितना बड़ा योगदान दे उसे उतना बड़ा सम्मान दिया जाए. जिसका चुनाव ठेके के पर्चियों और नाले में पड़ने की आवृत्ति और गाली की मात्रा के आधार पर किया जाए.
और उन्हें कुछ चक्र भी प्रदान किया जाए मसलन शराबवीर चक्र, महाशराब वीरचक्र, दारू चक्र आदि.. 

साथ ही इनके लिए हर क्षेत्र के नौकरियों में उचित आरक्षण दिया जाए और यह सिर्फ उन्हीं के लिए लागू हो जो इस लॉकडाउन के दौरान  वीरता दिखाएँ.. 

साथ ही अतिग्रहण / अति मदिरापान की अवस्था या किसी अन्य दुर्घटना में वीरगति को प्राप्त करने पर उन्हें 210 तोपों की सलामी दी जाए और उन्हें शहीद का दर्जा दिया जाए.

इसके साथ- साथ हर ठेके वाले चौराहे पर उनकी बड़ी मूर्ति लगाई जाए और उस चौराहे का नाम उसी योद्धा के नाम पर रखा जाए.. और फिर उनके परिजनों के नाम आजीवन दारू पीने के लिए एक निश्चित रकम हर माह उन्हें दिया जाए जो सिर्फ ठेके पर मान्य हो और उसके आवंटन हेतु एक अलग कोष बने जिसकी देख रेख कुछ खास मंत्रियों को ही दिया जाए.. खास मतलब खास.. 

भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने क्रांतिकारी परिवर्तन को देखते हुए कई देशों ने यूँ तो अपने यहाँ इस पर शोध करना शुरू कर दिया होगा , लेकिन इस गूढ़ तकनीकी का  इस्तेमाल  वह ना कर ले इस पर भी विचार करना होगा इसे पेटेंट कराना होगा और तुरन्त कार्यवाही करते हुए इसे हर डिग्री डिप्लोमा, माध्यमिक और उच्च कक्षाओं में अनिवार्य कर देना चाहिए और हर विद्यालय में इसके लिए अलग से बार लैब बनाया जाना चाहिये.. 

साथ ही साथ एक विश्वस्तरीय मदिर योग क्रिया और अनुसंधान केंद्र खोला जाए और तब वहाँ ट्रेनिंग दी जाए.

क्योंकि बनाने के लिए तो तमाम विश्व विद्यालय  पहले से हैं जो अच्छा कार्य कर रहे लेकिन पीने की तकनीकी सिखाने हेतु एक संस्थान अब अति आवश्यक है.

साथ ही फिलहाल घरों में दुबके लोगों तक  वेबिनार के माध्यम से हर शहर  के बड़े पियाक ( पियक्कड)  के द्वारा शराब पीने के तकनीकों और फायदों का प्रचार प्रसार किया जाना चाहिए ताकि घरों में छिपे डरपोक और कोरोना से  भयभीत लोगों को हौसला और प्रोत्साहन मिले साथ ही साथ उन्हें इस वेबिनार के लिए उचित सर्टिफिकेट भी मिले! 
यही नहीं यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो भी इस शराब पीने का बहिष्कार करे या शराब पीने के खराबी पर बात करे तो उसे कम से कम छः महीने सश्रम कारावास की सजा दी जाए..  ताकि उसे देश की अर्थव्यवस्था सनद रहे.. 

यही नहीं कोरोना से लड़ने वाले डॉक्टर और नर्सों पर बरसाए फूलों के बाद अगला कदम हर ठेकों पर फुल बरसाने का इंतजाम किया जाए और इसमे वायुसेना के सम्पूर्ण सैनिकों का इस्तेमाल किया जाए ताकि ठेके की संख्या अस्पताल से ज्यादा होने के कारण सब ठेकों को कवर किया जा सके और हर सैनिक इन योद्धाओं के पराक्रम से सीख ले और गौरवान्वित् महसूस करे.. 

कहते हैं परिस्थियाँ इंसान के ज्ञान का कारण बनती हैं, और अभी सम्पूर्ण बुद्धिजीवी वर्ग के चिंता का विषय यह होना चाहिये कि हर शहर में कितने कारखानों को बंद कर दिया जाए और उनके बदले में कितने ठेके खोले जाये ताकि कोरोना जैसी महामारी के  आने पर भी हम अपने विश्व की पहली अर्थव्यवस्था वाले  स्वप्न पर जुड़ें रहें... 

चूँकि संकट काल में सबसे ज्यादा दोहन हमारे  पुलिस कर्मियों का होता है , और चूँकि ठेके पर पियक्कड  लोगों को संभालने में उन्हें निश्चित रूप से परेशानी हो रही होगी और चौराहे पर इन्ही लोगों को पीटने के बाद ठेके पर उनसे ही सोशल डिस्टेंसिनग का पालन करने के साथ बोतल खरीदने को कहने पर उन्हें जरूर ग्लानि हो रही होगी, तो उन्हें भी इस ग्लानि से मुक्ति हेतु मुहल्लों में बोतल पहुंचाने के कार्य में भी लगाया जा सकता है.. 

और सबसे जरूरी बात कि हर चौराहे पर उन तकनीक का  प्रयोग किया जाए जिससे यह पता चल सके कौन व्यक्ति बिना पिये या बिना बोतल के सड़क पर चल रहा है.. और जिस व्यक्ति के पास बोतल न मिले या मुह से दारू की खुशबू ना आये  या फिर  वह किसी भी अन्य जगह जैसे अस्पताल आदि  से आता मिले तो  उसे यह कह कर कि वह  बहाने बना रहा है ,उसे सौ डण्डे लगाने के बाद ही छोड़ा जाए ... हर सड़क पर लॉक डाउन तक "सिर्फ पियक्कड या नेता के लिए " लिखा बोर्ड भी लगवा देना चाहिए.. 

गरीब या ऐसा व्यक्ति जो रिक्शा चलाने के बाद रोज शराब पी रहा हो लेकिन अब  शराब ना खरीद सके या फिर कोई मजदूर जो सूरत , दिल्ली से बिहार जैसे दारू मुक्त जगह पर जा रहा हो उसे भी कड़ी से कड़ी सजा दिये जाने का प्रावधान लागू हो.. ऐसे व्यक्ति जो इस संकट काल में  अर्थव्यवस्था  को पटरी पर लाने में असमर्थ हों उन्हें निश्चित रूप से हमारे महान भारत के सड़क की पटरी पर भी चलने का अधिकार नहीं होना चाहिए... 


इस महान क्रांतिकारी कदम के ऊपर कविता ,कहानी ,लेख लिखने वाले के लिए भी सीधे मधु साहित्य अकादमी पुरस्कार, दारू रतन,  छद्म पुरस्कार आदि दिया जाना चाहिये, साथ ही बच्चन जी की  रचित मधुशाला  को धार्मिक ग्रन्थों में शामिल किये जाने के लिए केबिनेट मीटिंग बुला कर अध्यादेश  लाया जाना चाहिए... 
और फिर मधुशाला की एक कॉपी आगामी चुनाव में  अध्धा, पौवा के साथ  बांटी जानी चाहिए.. 


अंत में गुजारिश  अगर मैं महिमा मंडन के उपरोक्त लेखन में असफल हुआ हूँ तो भी   मेरे जैसे लोगों को भी नशे में ही हजार गाली दिया जाना चाहिए कि जब सम्पूर्ण देश अर्थव्यवस्था के सुदृढ करने वाले एक मात्र राम बाण की खोज कर चुका हो तो  इस महान खोज की गौरव गाथा में असफल कैसे.. 


बाकी हां मिलते हैं विश्व के प्रथम अर्थव्यवस्था में जल्दी ही, कोरोना से देश अगर तबाही से बचा तो ...  सिंहासनों के के हसीं स्वप्न और महत्वाकांक्षाएँ  राष्ट्र हेतु अक्सर कब्रिस्तान साबित होती आयी हैं  है..चाहें तो इतिहास के पन्ने पलट डालें.. 




अरे नींद टूट गयी... 

और गाना बजने लगा  

सबको मालूम है मै शराबी नहीं... 

और मुझे सुनाई दे रहा है . . . . . . 
 
अर्थव्यवस्था पटरी पे ना लौट पाए तो कोई क्या करे... 

वह कोरोना से मरे या फिर दारू से मरे.. 
सड़क पर पैदल चल के मरे तो भी कोई क्या करे .. 

सबको मालूम है वह शराबी नहीं.. 
जो भूख से तड़प के मर जाए तो कोई क्या करे.. 




©Rajeev Kumar Pandey "माहिर "

देश हित में अपने 90 प्रतिशत मित्रों से माफ़ी के साथ