शनिवार, 18 अप्रैल 2020

बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी


मौत  को  इंसानियत  से डर रहा है आज भी ,
रखवालों के हाथ में खंजर रहा है आज भी ,

खुद को मारा है इन्सान ने, अपने  जमीरों को दे सजा ,
कि आँखों के सामने उसके,लाशों का मंजर रहा है आज भी ...

जिन दरख्तों से काट दी हमने हजारों  डालियाँ ,
उन दरख्तों की गवाही देखिये कि, वहां बंजर रहा है आज भी,

खुद की तबाही का सबब जब रहा है तू यहाँ ,
फिर क्यूँ रोता हुआ , रात भर रहा है आज भी ??

हो रहे हैं सर कलम इंसानियत और ईमान के,
बिक रहे हैं देखिये जनाजे और कब्र इन्सान के ,

देख के मुस्कुरा रहे हम अपना ही दफ़न आज भी
बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी !

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

सत्यमेव जयते ?

मारों सालों को, 
हाँ मारो सालों को, 

साहब हमारा कसूर क्या है? 

साला हमसे पूछता है कसूर? 
चल चार लगा इसके पिछवाड़े पर, 
रे हरामी साला.. 

चल मुर्गा बन, 
घर जायेगा,
वहाँ महामारी फैलायेगा, 

साहब हमें नहीं पता था कि, 
8 बजे जब बारह बजे की बात होगी, 
तो हमारे बारह बज जायेंगे, 

मालिक अब मत मारिये लाठी, 
बहुत दर्द होता है.. 
नहीं साहब , 
मारिये और दो चार लाठी .. 
कि हम मर जाएं, 
साला ए भूख है न, 
इससे मरने से अच्छा है, 
कि आपकी लाठी से मरें, 
ताकि मर के भी आपको सुकून दिला पाएँ, 
कि आप ने सरकार के आदेश का पालन किया, 
कर्तव्य निभाया, 

गाली भी दीजिये थोड़ा, 
कई दिन से गाली भी नहीं खाया, 
कमी महसूस हो रही थी, 
आज पुरा किया आपने, 

लेकिन मेरी भी सुनिये उसके बाद पिटियेगा फिर से, 
और हमरे पिटाई का
बीडीओ भी बना लीजियेगा सर, 
फेसबुक पर बहुत शेयर होगा सर, 
हम फिर मुर्गा बनेंगे, 
पक्का वादा है सर, 



लेकिन ये बताइये, 
हम कब गए थे परदेश, 
जहाँ ई वाली स्टैंडर्ड बीमारी पकडा हमको, 
हम लोग के तो कोई पास भी नहीं आता था सर,
त कोई छुता भी नहीं था, 
लेकिन मान लिए सर नहीं जायेंगे हम घर, 


वह बड़बड़ाता रहा, 
साहब हमारे पास तो जो जमीं था 
वो बेच के तो एजेंट को पैसा दिये, 
उ खा गया तो हम
चले आये आपके, 
दिल्ली, लुधियाना, मुंबई, 
का करें आप बताइये, 


8 बजे आके 12 बजे ही क्यूँ सर, 
उसके एक दो घंटा पहिले काहे नहीं सर, 
सर सुनिये न जो थाली बजी थी, 
हम भी थे सर उसमे, 
बहुत जोर से बजाया था हमने भी, 
लेकिन हमको पता नहीं था न सर, 
अब थाली बजाना ही नियति है मेरी, 

उसी दिन फोन किये थे, 
मालिक को पगार देने को, 
बोला कि जाओ जिसको मर्जी बोल दो, 
अब तो छुटी बाद ही देंगे, 
सर हम फिर घर से निकल के 
आप ही जैसे खाकी वाले के पास जा रहे थे, 
उ रास्ते में ही मिल गए, 
उ भी वैसे  ही पीटे थे सर, 
जैसे आप पीट रहे हैं, 

लेकिन तब दर्द कम हुआ था सर ! 
भूखे नहीं थे न सर, 
लेकिन खत्म हो गया, 

ई बताइये सर, 
ई जब आप लोग हमलोग का कॉलर पकड़ के, 
जब पीटते हैं तो आप को भी न हो जायेगा सर, 
और सर आप तो मुह नहीं न बांधे हैं सर, 

रे साला तुम हम से कानून हगता है रे, 
पुलिस को सिखायेगा, 
कानून, 
साले डाल देंगे जेल में सडोगे वहीं, 

साहब ले चलिए जल्दी
उहाँ खाना त मिलेगा न, 
साहब कोई भीख भी नहीं देता है, 
एक मीटर से दूर रहना है न साहब, 

हमको जेल ही ले चलिए, 
या फिर वहाँ जहाँ रैली हो रही हो, 
या वहाँ जहाँ नारा लगाना हो, 
उहाँ त खाना भी मिल जाता है, 
और दु सौ तीन सौ रूपया भी, 


सिपाही को जाने क्या सुझा, 
उठा , 
गाड़ी से अपना लंच बॉक्स लाके दे दिया, 
सुबह से वो भी भूखा था,
लेकिन जाने क्यूँ वह भूख भूल गया अपनी,

 
बात करते उसने फिर से पूछा साहब, 
जेल में खाना मिलेगा न ? 

तभी गाड़ी मे बैठा कोई चिल्लाया, 
रे साला, 
तुम इससे बतिया रहा है, 
मारो चार और इसके पिछवाड़े पर, 

सिपाही ने डण्डा उपर उठाया, 
हाथ काँप गया, 
डंडा गिर गया, 
आँख के कोर पर दो बूँद आ गयी थी, 
कांपते होठों ने कहा, 
क्या यही है लोकतंत्र  ??

और पुलिस की गाड़ी पर 
वह सवालिया निगाहों से देखने लगा, 
छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था, 
"सत्यमेव जयते"
सिपाही बोला क्या सच में ? 






मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

मजबूर बिहार, मजबूत बिहार या फिर मजदूर बिहार ?

अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ ,तो पंजाब के किसान बिहार से जाने वाले उनके खेतों में काम करने वाले मजदूरों के लिए परेशान हैं। और मुम्बई में उतर भारतीय लोग बांद्रा में भीड़ जमाये बैठे हैं। 

अब आगे

अगर आप को गमछा, लिट्टी -चोखा, धोती -कुर्ता, छठ और होली का मतलब बिहारी होना लगता  है तो माफ़ करें, दोनों हाथ जोड़ के कह रहा हूँ कि अब आप आगे नहीं पढ़ें। 

अगर किसी शहर में किसी रास्ते के किनारे खड़े खड़े किसी भी इंसान को पेशाब करते देखते हुए किसी के यह कहने "कि अरे पक्का बिहारी है " पर आपको तकलीफ होती है लेकिन बोलने वाले को नहीं टोकते तो भी आगे नहीं पढ़ें। 


साथ ही आगे पढ़ने से पहले यह कर बद्ध प्रार्थना कि अगर आप प्राउड बिहारी हैं या फिर  किसी पुर्वाग्रह से ग्रसित हैं ,तो आप  आगे नहीं पढ़ें। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि आपका वर्षों से जुटाया हुआ गर्वित करता आपका पुर्वाग्रह खंडित हो। 

लेकिन अगर आप के अंदर कुछ रोज मर रहा है बिहारी और बिहार सुन कर तो जरूर पढ़ें। 

ये समझिये कि यह कहानी बिहार से निकले हर व्यक्ति का है , जो पहली बार आँसू भरी आँखों से बिहार से निकलता है ,और फिर बिहार को खुद के अंदर से निकालने की कोशिश करते उम्र गुजार देता है। 
पहली बार किसी जनसेवा और जननायक ट्रेन से या फिर राजधानी पकड़ के पटना, दरभंगा, भागलपुर, बलिया सिवान, छपरा से जब बिहार छोड़ता है ना,तो शुरू के कुछ दिन तक तो उसका मन नहीं लगता और फिर एक ऐसी स्थिति आती है ,जब वह फिर वापस उन्हीं जगहों पर नहीं लौटना चाहता। चाहे इसके लिए उसे सूरत, दिल्ली, मुम्बई में जाके झुग्गी, खोली में रहना पड़े या फिर उसे अपने खून ,पसीने, ठगी आदि से फ्लैट लेना पड़े। 

धीरे -धीरे रोज एक एक कतरा बिहारी वो मारता रहता है अपने बिहारीपन में से।  उसकी सारी कोशिश रहती है कि उसके अंदर का बिहार मर जाए। 
कितनी ताज्जुब की बात है कि एक पंजाबी, बंगाली ,उड़िया , गुजराती को कभी समस्या नहीं हुई अपने राज्यों के नाम से लेकिन हम बिहारियों को जरूर होती है। 

ख़ुद के अंदर के बिहारी  को  निकालने के क्रम में मै ऐसे तमाम लोगों से दिल्ली,चंडीगढ़, गुजरात, राजस्थान के शहरों में मिला हूँ, जो अपने परिचय में बिहार को नहीं शामिल करते जब तक उन्हें मैं यह नहीं बता देता कि मैं बिहार से हूँ। 

हो सकता है कुछ लोग होंगे जो इसके अपवाद हों ,लेकिन ऐसे लोग भी या तो किसी मजबूरी वश हैं,किसी और कारण वश हैं या फिर खुद को ढाल चुके हैं। 
यहाँ ढाल चुके का मतलब उस माहौल से है, जिसने बिहार को बिहार बना रखा है, और बिहारी को बाहर के लोगों की नज़र वाला बिहारी। 

शहर कोई भी हो देश कोई भी हो, फैक्टरी कोई हो लेकिन वहाँ पर काम करने वाला बिहारी जरूर होगा। 

दुबई जैसे शहर की सब ऊँची और चमचमाती और आसमाँ को छूती बिल्डिंग ऐसे नहीं चमकती, उसमें कुछ बिहारी मजदूरों का पसीना और उनके बिके हुए जमीन के टुकड़े में बसा हुआ एक बेहतर भविष्य का सपना चमकता है।  आज भी, 1500 रुपया थाने में बेगुनाही के लिए जमा करने के बाद जो पासपोर्ट आता है ,तो उसी के साथ उम्मीदें और बेहतर कल के सपने में बिहार से बाहर चले जाने का दर्द , अपनों से दूर होने का दर्द कहीं रिसते हुए खत्म हो जाता है। 
और सपनों के बेचने का खेल दलाल खेलते रहते हैं, और एक बड़ा व्यापार चलता रहता है। 

गुरुग्राम के गाड़ियों के पार्ट्स बनाने वाला सारी उम्र, रहने ,खाने ,दिहाड़ी  के जुगाड़ के बाद ठेकेदार बनने के सपने देखता रह जाता है और बिहार भूल जाता है।  लुधियाना की वुलन फैक्ट्री, या फिर सूरत की साड़ियों पर कसीदा कारी करता हुआ बिहारी जब वापस गाँव लौटता है, तो वह अपने बनाये हुए एक स्वेटर, शाल और साड़ी तक लाने की औकात में नहीं होता। 
क्योंकि उसके रोज के बचाये पैसे से कोसी के शाप से संतप्त  अपने छप्पर की मरम्मत करानी होती है। 

मुम्बई में हीरो बनने जाने वाला बिहारी कब उतर भारतीय हो जाता है ,उसे समझ ही नहीं आता, हीरो बनने वाला युवक कब वहाँ स्पॉट बॉय, और कराउड/ साइड डांसर बन के गुम हो जाता है, उसे कभी खबर नहीं होती। लेकिन सबके बावजूद वह वापस बिहार नहीं जाना चाहता। क्योंकि सपनों के कब्र गाह  में कौन वापस जाना चाहता है। 
यही नहीं जो सफ़ल हो जाता है, वह भी नहीं जाना चाहता वापस।

जरूर आप सोचने लगे होंगे कि अरे ये तो खाली खराबी और बुराई की ही बात करता है। 

तो आइये उन बातों पर भी एक नजर डाल लें जो हमें महान बनाता है। हमारे लिए आज भी वह बदमाश, सांसद, नेता महान है, जिसके आस - पास दस- बीस बिना लाइसेंस के कार्बाइन, रिवाल्वर, राइफल वाले गुंडे घूम रहे हों।  हमारे लिए सबसे ज्यादा सम्मानित वही नेता जी लोग होते हैं जिनके ऊपर दस- बीस मर्डर का केस लदा हो। और 10 x 10 के दड़बों में जब हमें किसी से बड़ा बनना होता है, तो हम तुरन्त उन्हीं गुंडों का नाम लेते हैं। 

भले ही बाहर दड़बे  से बाहर निकलते ही हमारा प्राउड टू बी बिहार फुस्स हो जाता है। अकेले बोलने से हमें डर लगता है लेकिन दस बीस हों तो हम शेर हैं। 
अरे हाँ खुद को खुश करने के लिए हमने मुहावरा भी तो बना लिया है," एक बिहारी सब पर भारी "
और बाहर वालों ने इसका जवाब भी बना लिया है " एक बिहारी सौ बीमारी " । 

लेकिन हमें क्या जी, देश के पहले राष्ट्रपति हमारे ही यहाँ सिवान के थे, लेकिन साथ ही हम यह भूल  जाते हैं , उसी सिवान के जहाँ तेजाब से नहला के लोगों को मार दिया गया, जो बिहार में गुंडागर्दी के नाम से फेमस रहा । 
इससे भी क्या नालंदा तो बिहार में ही था न मगध भी था, काफी तो है बिहार के लिए घमण्ड करने के लिए। 


लेकिन हमें क्या जी हम तो या तो गुंडा बदमाश बनते हैं, या फिर सीधे IAS PCS रिजल्ट देखिये कभी भरा होता है नाम बिहारियों का, साथ ही अखबार भी तो देखिये वो भी भरा होता है, खूनी खबरों से,  गुंडागर्दी  लूट पाट , धोखाधड़ी की खबरों से। 
और तो कितना घमंड करें, हमारी टॉपर बनती नहीं बनाई जाती है, अब हर किसी को यही लगता है ,कि हमारे यहाँ नकल  ही कारोबार है।  हमारे विश्वविद्यालयों की शाख अब ये है कि यहाँ साइंस का छात्र हो या आर्ट का वह किसी शहर के किसी फैक्टरी में काम करता है ,और फिर आके साल दो साल में एक बार होने वाली परीक्षा देख के (देके नहीं) वापस चला जाता है। 
लेकिन फिर भी हमारे यहाँ गणित बहुत तेज है, जानते हैं क्यूँ क्योंकि भूखा व्यक्ति गिनती  बढ़िया करता हैं, हमारे यहाँ पटना के "आनंद कुमार" के ऊपर फिल्म बन जाती है, वो हिट रहते हैं। लेकिन डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह को मरने के बाद एंबुलेंस नहीं मिलता। और फिर सरकारी सम्मान का ड्रामा किया जाता है। एक कड़वा सच है ,हमारे यहाँ जो सम्मान के काबिल है, वह कभी सम्मानित नहीं होता। 

और जब हम अपने राज्य में सम्मानित नहीं होते तो बाकी जगह सम्मान  की लडाई कैसी? 

ये सच है हिंदुस्तान सबका है, क्षेत्रवाद राज्यवाद पर बात बेमानी है, लेकिन जो भैया / भईया शब्द लक्ष्मण का राम के प्रति प्रेम दिखाता था, वह पंजाब, हरियाणा, गुजरात महाराष्ट में नफ़रत के किस पराकाष्ठा  को छुता है ,इसे बस वहाँ काम करने वाले मजबूर मजदूर समझ सकते हैं,हम और आप जैसे थोड़ा ठीक से रहने -दिखने वाले थोड़ा कम। लेकिन राह चलते सुनाई दे जाने वाला शब्द बिहारी कचोटता तो है। 

लेकिन हम भुलाने की कोशिश करते रहते हैं, और हमारा बिहारीपन होली और छठ पर ही निकल के बाहर निकल के आता है। 

बाढ़ होती है, तो कोई माई- बाप नहीं होता बिहार का , सूखा पड़ता है, तो भी कोई माई - बाप नहीं, जो रहनुमा हैं राज्य के वो ठीक से भाषण तक दे के तसल्ली नहीं दिला पाते किसी को बिहारियों को। आपदा आते ही उनके ऊपर मानो आफत आ जाती है,  मुह में दही जम जाती है लेकिन अफसोस कि हम फिर उन्हें अपना रहनुमा बना देते हैं। 

आज ये जो बिहार हमने पाया है यह हमारी किस्मत से नहीं मिला है ,इसे हमने और आपने मिल के खड़ा किया है। जहाँ गुंडा गर्दी कारोबार है, वहाँ किसी  को करोबार शुरू भी करना हो तो या तो उसे गुंडा बनना पड़ेगा ,और नहीं तो उसे गुंडों के करोबार को जिंदा रखने के लिए कुछ ना कुछ घूँट पिलाना पड़ेगा। वरना किसी भी दिन आप को किसी भी सुनसान सड़क पर गोलियों से छलनी कर दिया जायेगा। 

अरे हाँ एक बात और कला और संस्कृति तो रह ही गया है,   देवघर में एक महीना तक भक्ति गीतों को गाने वाला जब सावन के बाद अपने फॉर्म में आता है ,तो उसका संगीत आपके कान को बंद करने के लिए आपको मजबूर कर देता है। और YouTube पर छाए महान गायकों ने भी बिहार की छवि को चमका के रखा हुआ है।  हम सभी कहते हैं कि हम खराब गीत नहीं सुनते लेकिन फिर करोड़ों बार देखता कौन है। 
खैर हमाम में सब नंगे हैं, कोई रेन कोट पहन के नहा रहा कोई, कोई चेहरे पर नकाब लगा के। 

लेकिन कौन कहे और किससे कहे, हमारा बिहारी guy एंड Dude कहीं नाराज न हो जाए इसलिए हमने adjustment को अपना हथियार बना लिया है, और अपनी नियति भी। 

सुबह से शाम तक न्यूज़ चैनलों पर आके चारण वंदना करने वाले नोएडा के न्यूज़ चैनलों में लगभग आधे से ज्यादा बिहार से हैं ,और शायद अपनी चाटु कारिता को उन्होंने बिहार से बाहर रहने का रास्ता बना लिया है। वो छठ- होली में आते हैं ,तो बड़ा प्रेम उमड़ के आता है, बिहार के बाढ़ में तो मानो बिहार से ज्यादा उन्हीं के आँखों में बाढ़ होता है, लेकिन कभी किसी मुख्यमन्त्री को पकड़ कर उससे यह सवाल नहीं पूछा कि ये बाहर में जो मजबूर और मजदूर बिहार की छवि है इसे तोड़ने के लिए का किये हो तुम?  
यहाँ सरकारें भी वही हैं, हम भी वहीं हैं,  गुंडे भी वही हैं, लोग भी वही हैं। या तो हम बिहार से भाग जायेंगे और कानों में पत्थर डाल लेंगे की सुनाई ना दे या फिर खुद को सम्राट अशोक के वंशज मान के शांत पड़े रहेंगे। 

खैर अभी मुम्बई में, आनंद विहार में  हम बिहारियों की भीड़ खत्म होने की आने वाले दस बीस सालों में कोई उम्मीद मुझे नहीं दिखती।  कुछ जेनरल ट्रेनें और बढ़ा दी जायेंगी ताकि पंजाब, दिल्ली, गुजरात, जाने वाले मजदूरों को तकलीफ ना हो। और नितीश जी चिल्ला के कह पाएं हमारे बिहारी भाइयों को कुछ हुआ तो....... हम उन्हें वापस अपने यहाँ नहीं आने देंगे, क्योंकि हमारे यहाँ तो मोबाइल के टार्च जला के आपरेशन किया जा रहा आज कल। 

और ऐसा नहीं है कि यहाँ सभी मजबूर और मजदूर ही हैं, यहाँ सम्पति और पैसे के मामले में ऐसे भी लोग हैं जो दस बीस गाँव खरीद लें, लेकिन वे यहाँ नहीं कुछ कर के  नोएडा, गुरुग्राम, मुम्बई, दिल्ली जैसी जगहों पर रिहायशी सोसायटी के मालिक हैं।  शायद उनके अंदर का भी बिहारी बिहार से डरने लगा है। हर सरकारी और गैर सरकारी कंपनी में बड़ी से बड़ी पोस्ट पर भी आपको बिहारी मिलेगा लेकिन वह भी टीस से मरता हुआ मिलेगा आपको और एक समेट चुका होगा अपने को एक दायरे में, एक दीवार उठा चुका है वह अपने इर्द गिर्द। यह दीवार वह ध्वस्त करता है कुछ दिन के लिए,जब गर्मियों की छुट्टियों में उसे अपने गाँव आना होता है। अपना छुट चुका बिहार का बीत चुका बचपन याद करना होता है। या फिर अपने बच्चों को पुराने घर में आँगन का मतलब बताना होता है। 

खैर चलते चलते, 
तो बिहार के और बिहारी के खेल का जिम्मेदार कौन है,
हम और आप और कौन?

हमीं पर हमारे कत्ल का इल्जाम भी आयेगा, 
गुनाहगार हैं हम और सजा हमें ही सुनाना है। 

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

कोरोना :- एक महामारी, या एक अलार्म



कृष्ण कहते हैं 
"यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें। "

साथ ही एक जगह कहते हैं  

     "सुने को साध न सकता है, 
      तु मुझे बांध कब सकता है,"

जो बात दिनकर के कृष्ण ने दुर्योधन  से कहा था, आज शायद वही बात प्रकृति हमसे तो नहीं कहना चाह रही है । 
कि ऐ दुनिया को मुठ्ठी में बांधने की कोशिश करने वाला इंसान रुक जा ठहर जा। 

अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ, सारी दुनिया एक सन्नाटे से गुजर रही है। हम अपनी तमाम शान ओ शौकत, अपनी अच्छाई बुराई, किसी के प्रति अपना स्नेह, किसी से दुश्मनी, किसी से इर्ष्या आदि को भूल बैठे हैं।  थमे हुए हैं रुके हुए हैं, और देख रहे हैं प्रकृति और मानव का युद्ध मात्र। 

हमारी पैसे और धुआँ उगलती, मानव को सिर्फ कोयले, मशीन , कच्चे माल के ही जैसी सिर्फ संसाधन समझने वाली फैक्ट्रियां थमी हुई हैं। हमारी मुख्य जरूरत में स्वास्थ्य, रोटी और आश्रय शामिल है बस । लाखों करोड़ों की चमकदार गाडियाँ खड़ी हो गयी हैं। लाखों की घड़ियाँ रुक गयीं हैं , अलमारी की किसी दराज में पड़ी हुई टिक टिक कर रही हैं, हमारे समय का बोध कराते हुए। 


हमारी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं, हमारी दुश्वारी से ज्यादा हमें स्वयम के एकाकीपन से डर सा लगने लगा है। 

लेकिन इस समय को लेके यह सोचना होगा कि क्या यह वक़्त हमसे कुछ कहना तो नहीं चाह रहा है। 

प्रकृति एक बड़े समय से हमसे कुछ माँग रही थी शायद ! जिसकी आवाज को हमने नहीं सुना। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह हमसे छीन लेने को मजबूर हो गयी। 

पिछले साल आस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग , कुछ साल पहले भारत के केदार नाथ में हुई त्रासदी और उससे  पहले के सालों में दुनिया के कई हिस्सों में हुई बड़ी घटनाओं और इस साल वैश्विक स्तर पर इस महामारी की मार हमसे कुछ कहना तो नहीं चाह रही है ? हमने उससे कुछ छीन तो नहीं लिया जो उसने अपने लिए रखा था? 

यह एक अलार्म तो नहीं, एक लाल झंडी तो नहीं ठहराव के लिए ? प्रकृति यह तो नहीं कहना चाह रही भागते हुए मनुष्य से कि रुक जा चिल्ल कर थोड़ा सा फिर चलना, यह यात्रा मैंने ही तो दिया है, तो रुक तो जा। 


हमने जब चाहा जो चाहा किया, हमने समझा ही नहीं, सोचा ही नहीं कि हम जो कंक्रीट के जंगल बना रहे ,इसका हमें कभी न कभी तो कीमत तो चुकाना होगा। हम चुका नहीं पाए प्रकृति ने हमसे वसूल लिया है। 

विभिन्न जगहों पर ,अलग अलग देशों की  पृष्ठभूमि अलग, भौगोलिक स्थितियाँ अलग , लोग अलग, लोक अलग , संस्कृति अलग थी, जिसे शायद प्रकृति ने अपने हिसाब से सँवारा था। 

लेकिन वाह रे इंसान भूमंडलीकरण / ग्लोबलाईजेशन के जिद में हमने सब रौंद डाला । हमने इंजन बनाये, उसमें ईंधन डाला और लाँघ दिया हजारों मील बस चंद घंटों में। उसी इंजन में एक मशीन लगाया और काट दिया लाखों पेड़ चंद घंटों में। क्योंकि हमें जंगलों को काटना था और इको पार्क बनाना था , पैसे पैदा करने वाले स्काई स्क्रेपर बनाना था । यही नहीं हम इतने पे कहाँ रुक जाते, हमने डायनामाइट लगाया और उड़ा दिया पहाडों को चंद धमाके से और प्रकृति पर अपनी जीत को उसी पहाड़ के सीने पर,हिल स्टेशन पर सात सितारा होटल में सेलिब्रेट कर डाला

कहीं यह उन्हीं सेलिबरेशन की वसूली तो नहीं। 


 हम ही ब्रह्म हैं के भरम में पड़े-पड़े हम भूल बैठे थे, कि कोई है जो सर्वोपरि है, कोई है, जो हमारे इस खेल पर नज़र रखा है। लेकिन नहीं हमें तो सुपर पावर बनना है।  जो उसने हमें दिया हमने उसी का प्रयोग कर के  बम के धमाके किये, न्युक्लियर खेल खेला यह साबित करने के लिए कि जब भी विध्वंस का खेल होगा तो हम ही ज्यादा भयानक और विध्वंसक होंगे और हमारा परचम लहरा उठेगा। 

हमने प्रकृति की सता को धता बताते हुए वो सारे खेल खेले जिससे हम उसको मुह चिढ़ा सकें ।  लेकिन जो हमारा निर्माता है विध्वंस का सर्वधिकार उसी के पास सुरक्षित है, आज का वक़्त कहीं यही तो बताने को नहीं आया है। 

कहीं यह एक संदेश तो नहीं, उस नहीं दिखने वाली शक्ति का कि ब्रह्म मैं हूँ, तुम नहीं ,इस लिए रुक जाओ, ठहर जाओ, रुकते हुए चलो नहीं तो अंजाम बुरा होगा।

हमारे बीच के युद्ध के तमाम मुद्दों जैसे कौन बड़ा, कौन छोटा , कौन अमीर , कौनगरीब, कौन उच्च कुल का, कौन निम्न कुल का, कौन किस जगह का ,कौन किस जमीन का, कौन किस भाषा वाला, कौन किस दल वाला, कौन किस धर्म वाला, कौन किस जाति वाला जैसी बातों से नाराज तो नहीं हो गया वह। 

या फिर वह हमारी मरती हुई संवेदनाओं को जगाना चाहता है, भूखे प्यासे को देख कर हमारी कम होते भावों को तो वह जिंदा नहीं करना चाहता है। 
मृत्यु को देख कर उसके प्रति  हमारे कम होते जिजीविषा और उद्दीपन को वह दुबारा मजबूत तो नहीं करना चाहता। 

या फिर भाग दौड़ की जिंदगी में वह हमें ऐसा समय देना चाहता है ,जब हम भाग दौड़ में  से निकल कर  मानवता के करीब आयें  ।  या वह भौतिक संसाधनों  को जुटाने में उसके उपभोग को भूल बैठने की बात याद दिलाना चाह रहा है। वह सम्बन्धों पर बैठ गयी काई को साफ कराना चाह रहा है। वह खत्म होते पारिवारिक मूल्यों, मानवीय मूल्यों को सहेजने , संवारने  और उन्हें पुनर्जीवित करने के साथ हमारे अंदर के मनुष्य को मजबूती देना चाहता है। वह बताना चाह रहा सामंजस्य नितांत आवश्यक है। 
 
पुन:
कृष्ण कहते हैं, जो हुआ अच्छा हुआ जो हो रहा है ,वह भी अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा होगा। 

सर्वे भवंतु सुखिनः.... 

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

"असुर" वेबसीरी़ज समीक्षा

सबसे पहले इस वेबसीरी़ज को असुर नाम क्यूँ दिया गया है ?  यह समझना जरूरी है। मृत्यु सिर्फ असुरों के ही आनंद का विषय वस्तु हो सकता है, देवों के नहीं। 
व्यक्ति का मनोविज्ञान ही उसे देव या दानव रूप प्रदान करता है, वह कौन सा रास्ता अख्तियार करता है यह उसी पर निर्भर करता है। 
सामान्य रूप से भारतीय पौराणिक कथाओं पर जब कोई कहानी कही जाती है ,तो उसमें तंत्र- मंत्र साधना आदि से कहानी को दिशा दी जाती है। 
इससे विपरीत यह एक बालक के "असुर"  रूप में परिवर्तन आधुनिक तकनीकी और विज्ञान के प्रयोग पर आधारित है। एक तरफ वह तंत्र-मंत्र ,पुराण  के सहारे स्वयम के मनोविज्ञान को असुरी प्रवृत्ति की तरफ मजबूती प्रदान करता है ,दूसरी तरफ वह मौत के खेल को तकनीकी के सहारे अंजाम देता है। 

कहानी है सत्य और असत्य के युद्ध की, 
और इसे देखते हुए आप जाने उन कितने पलों को जियेंगे जो आपको सत्य और असत्य के इस युद्ध में कभी सत्य को हारते देखते हैं और कई बार उसे जीतते.. साथ ही दिमाग आपको क्या सही और क्या गलत में भी कन्फ्यूज करता है। 

मनुष्य का मनोविज्ञान और मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमताओं के मजबूती और इसका विज्ञान के साथ ताल मेल कितना भयावह भी हो सकता है ,यह इस कहानी का मुख्य पक्ष है। 

कल्कि अवतार की सम्भावना एक बालक जिसका नाम शुभ है, के मानसिक  उद्वेलन को किस तरह से प्रभावित  करती है और वह उसे धर्म,विज्ञान  और आधुनिक तकनीकी के सहारे मृत्यु को एक माध्यम बना के ईश्वर को आमंत्रण देता है यह इस कहानी का मुख्य प्लॉट है। 

यूँ समझा जाए कि यह कहानी विज्ञान और धर्म के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को उजागर करता है! समस्या जिस रास्ते से उत्पन्न की जाती है उसका समाधान भी उसी रास्ते से मिलता है! 
धनंजय राजपूत और शुभ के इस मनोवृति की लड़ाई की कहानी है यह जिसमें दोनों को लगता है कि दोनोँ ही सच के साथ हैं! 
साथ ही कहानी  निखिल, और धनंजय राजपूत की टीम आदि के सहारे आगे बढ़ती है। 
कहानी बनारस के घाटों और FBI और CBI के दफ्तरों से शुरू होती है, और समानांतर चलती है ।
घाटों के सौंदर्य , पूजा पाठ और तन्त्र मंत्र और Sci-Fi दफ्तरों के बीच और मौत और उसके बाद पोस्टमार्टम रूम के बीच की बात चीत, मौत के तरीकों का विश्लेषण, हैकिंग के साथ जेल के बंद दीवारों के बीच सब कुछ अलग चलते हुए कब आप कहानी का हिस्सा बन के सोचने लगते हैं आप को पता ही नहीं चलता।
 संस्पेंस  का घेरा आपके इर्द गिर्द ऐसे चलता है, जो कहानी के खत्म होने तक आप को कई सारे प्रश्न देकर जाता है! 
कई बार आप स्वयम भी मौत की गुत्थी सुलझाने में दिमाग चलाने लगते हैं। 

परत दर परत किरदारों और उनके चरित्रों पर से उठता परदा ही इस कहानी की मजबूती है । 
सभी कलाकारों का अभिनय उम्दा दर्जे का है! जिसको जितना काम मिला है उसने बेहतरीन किया है, 
सिनेमेटोग्राफी, साउंड बेहतरीन , कई जगह डार्क नेस जो कहानी की माँग है उस पर बढ़िया काम किया है! 

क्यूँ देखें :- कुछ बहुत नया देखना चाहते हों तो जरूर देखें ! 

क्यूँ नहीं देखें :-  अगर मनोविज्ञान और धर्म के पक्ष ,गुण और अवगुणों के बीच विभेद नहीं कर पाएं तो नहीं  देखें! 

पांच घण्टे देख कर आप यह पाएंगे, कुछ अलग देखा है। 

रविवार, 5 अप्रैल 2020

"पंचायत " वेबसीरी़ज समीक्षा





वेबसीरी़ज की श्रृंखलाओं में यूँ तो तमाम थ्रिलर और सस्पेंस की कहानियाँ कही जाती रही हैं, लेकिन इनसे अलग कई देशी कहानियाँ और आम आदमी की कहानी भी कही जाती रही है.. 
लेकिन इन सब से भी अलग,  जब गाँवों की कहानी कही जाती है ,तो उसमें वो सब कुछ होता है ,जो परत दर परत बदलते गाँवों के बीच भी अपने बदलाव को ठहराव देता सा नजर आने लगता है! 

कुछ इसी तरह की कहानी है "पंचायत " की। अभिषेक बचपन से शहर में पला- पढ़ा एक युवक, जो  किसी कारण वश शहर के किसी कार्पोरेट वातावरण में जगह नहीं बना पाया होता है ,लेकिन सरकारी नौकरी पा कर गाँव का पंचायत सचिव का पद पाने में सफल रहता है। 

यह कहानी उसी शहरी युवा पंचायत सचिव का है, जो नोएडा के कॉर्पोरेट के सपने को याद करते हुए गाँव के एक पंचायत भवन में रह कर जीता है, महत्वाकांक्षाओं वाला जिदी युवक CAT Entrance की तैयारी , गाँव की राजनीति, गाँव के अंध विश्वास, और मान्यताओं के साथ जो युद्ध लड़ता है यह कहानी उसी की दास्ताँ है। 
और इस युद्ध में अभिषेक का सारथी होता है पंचायत का सहायक विकास, कहानी के हर ठहराव को विकास कुछ आगे तक ले जाता है। और कहानी जोड़े रहती है! 
गाँव के काइयाँपन के साथ ही साथ यह गाँवों में दम तोड़ते अपनापन के बीच में  भी बचे हुए अपनापन के बचे होने की कहानी भी है। 

एक प्रधानपति बृज भूषण दुबे और उप प्रधान प्रहलाद पाण्डे का अभिषेक के साथ जुड़ाव, सचिव के दरोगा के साथ नोंक झोंक , अभिषेक के ऑफिस से मॉनिटर चोरी होना ऐसी तमाम घटनाएँ, अभिषेक के सफ़र को आगे बढ़ाती रहती है, शहर की गालियाँ गाँव में क्या खतरा और एडवेंचर पैदा करती हैं इसकी झलक भी मिलती है! 
अगर आप गाँव के हैं तो गाँव का एक किरदार परमेश्वर आपके आस -पास मिल जायेंगे, जो हर घी में उँगली टेढी कर के ही घी निकालने में विश्वास करते हैं!  साथ ही आप ढूँढ लेंगे अपने पास का लड़का विकास। 
 एक  कुर्सी, एक मॉनिटर, एक सोलर सिस्टम  , बीयर की बोतल और भुतहा पेड़ जैसी निर्जीव चीजों की कहानी है यह पंचायत! 

क्यों देखें? महसूस करने के लिए कि अगर आप शहरी हैं तो गाँव में आप को क्या एडवेंचर मिल जायेगा, और अगर आप गाँव वाले हैं तो आप अपने पास के किरदारों को स्क्रीन पर महसूस करने के लिए देख सकते हैं! 

तो अगर आप थोड़ा अलग देखना चाहते हैं, थोड़ा मिजाज को बोझिल होने से बचाना चाहते हों और फुल entertainment चाहते हैं तो जरूर देखें! 

सिनेमेटोग्राफी, साउंड इतना उम्दा कि आप गाँव के खेत, गाँव की शादी, गाँव के कोयल की आवाज, गेहूँ के खेत सब कुछ महसूस करेंगे.. 

गाँव बचा हुआ है कहीं इसकी वकालत करता है यह वेब सीरीज... 

कब आप 8 एपिसोड खत्म कर लेते हैं आप को एहसास  ही नहीं होता.. 
कहानी जानने के लिए देखना होगा "पंचायत"

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