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गुरुवार, 25 जून 2020

बस यूँ ही !


याद है तुमने कहा था ,
हाथों की लकीरों में कुछ नही है ,
और मै थाम के बैठा रहा था
तुम्हारी हाथों को ,
कि तुम्हारी हाथों की लकीरों में ,
कुछ भर दूँ ,
थोडा स्नेह ही सही ,
मेरे पास कुछ भी तो नही ,
तुम्हे देने को ,
पर फ़िर भी ,
जब भी सिहरन महसूस होगी ,
या फिर ये एहसास ,
कि हाथों को दबाये कोई ,
तो मिलूंगा अतीत के झरोखों में ,
स्नेह के साथ,
बस यूँ ही !!!....
प्रेम नही
एक एहसास बस ,
और कुछ भी तो नही ,
बस यूँ ही !!

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

सरदार भगत सिंह के आत्मा की आवाज

शहीद दिवस पर शहीदों को समर्पित एक कविता ...
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एक दिन कलम ने आके चुपके से मुझसे ये राज खोला ,
कि रात को भगत सिंह ने सपने में आकर उससे बोला,

कहाँ गया वो मेरा इन्कलाब कहाँ गया वो बसंती चोला ?
कहाँ गया मेरा फेंका हुआ, मेरे बम का वो गोला ?

आत्मा ने भगत के आकर कहा , ये देख के हम बहुत शर्मिंदा हैं,
कि देश देखो आज जल रहा है,और जवान यहाँ अभी भी जिन्दा हैं ??

देख के वो रो पड़ा इस देश की अंधी जवानी ,
क्या हुआ इस देश को जहाँ खून बहा था जैसे हो पानी ,

खो गया लगता जवान आज जैसे शराब में ,
खो गया आदतों में उन्ही , जो आते हैं खराब में ,

कीमतें कितनी चुकाई थी हमने, ये तो सब ही जानते हैं
तो फिर इस देश को हम आज , क्यूँ नही अपना मानते हैं ?

देश के संसद पे आके वो फेंक के बम जाते हैं ,
और खुदगर्जी में हम सब उन्हें अपना मेहमां बनाते हैं ,

भूल गये हो क्या नारा तुम अब इन्कलाब का ???
जो पत्थरों के बदले में भी थमाते हो फुल तुम गुलाब का ?

मानने को मान लेता मानना गर होता उसे ,
जान लेता हमारे इरादे गर जानना होता उसे ,

आँखों में आंसू आ गया, देख के अब ये जमाना ,
लगता है आज बर्बाद अब , हमको अपना फांसी लगाना ,

ऐ जवां तुम जाग जाओ तुम्हे देश ये बचाना होगा ,
आज आजाद और भगत बन के तुम्हे ही आगे आना होगा

ऐ जवां तुम्हे नहीं खबर ,कि जब-जब चुप हम हो जाते हैं
देश के दुश्मन हमे तब-तब, नपुंसक कह- कह कर के बुलाते हैं,

उठो और लिख दो आज फिर से, कुछ और कहानियाँ ,
कह दो जिन्दा हैं अभी हम और सोयी हैं नही जवानियाँ,

गर लगी हो जवानी में, जंग, तो हमसे तुम ये बताओ ,
या खून में उबाल हो ना , तो भी बस हमसे सुनाओ,

एक बार फिर से हम इस मिटटी के लाल बन के आयंगे ,
एक बार इस देश को अपनों के ही गुलामी से हम बचायेंगे ,

नारा इन्कलाब का हम फिर से आज लगायेंगे ..
पर ये सवाल हम आप से फिर भी बार-बार दुहराएंगे,

कि आखिर कब तक ?? आखिर कब तक ?
इस देश के जवां कमजोर और बुझदिल कहलाते जायंगे.....
इसको बचाने खातिर कब, तक भगत सिंह और आजाद यहाँ पर आयंगे ???

शनिवार, 17 मार्च 2012

कहा बाड़ भगवन

कहा बाड़ भगवन तनी एक बार आव
आपन दरस तनी सबके देखाव,

देख तोहरा दुनिया के का हो गली बा
जे रहे केतना सीधा उ टेढ़ा हो गइल  बा,

लागत्ता  न सुधरी अब तोहर इ दुनिया
लजात  अब नइखे  काहें,   देख ललमुनिया,

ना माई के सुने ना बाप से डराए
और भाई के इज्जत के मिटटी में milaye,

कहे बाप से हम अब माडर्न  हो गइल बानी
राउर वक़्त अब हो गइल बा एगो बितल कहानी ,

का इतना टाइम आगे हो गइल बा
की शर्म लाज , इज्जत अब सब खो गइल बा ?

अरे भगवन एक बार तनी तुन्हू आव
हे नादान के तुहूँ आके बताओ,

की बहुत दिन ना रही इ नादान जवानी
इ उम्र के ना कही देख बन जाये कहानी,

इ ता रहे देख भगवन उमर के नादानी
पर इ देख तू तनी एगो भौजी के कहानी,

माथा के आँचल  भौजी अब सिर से गिरावेली
पति के अब देख उ डार्लिंग बुलावेली,

सासु अम्मा देख अब आंटी हो गइल बाड़ी
पतोहिया के देख अब उ धोयेली साड़ी,

बेटा ना सुने अब माँ के कौनो बात
बाप के भी दिखा देले कुछ ता उनकर औकात,

का भगवन का बाकी बा अब देखे  के तोहरा
कहे तू अब करतार ऐ पापन के पहरा,

अरे अपना दुनिया  के कुछ ता सिखाव
ना ते ऐ दुनिया के मिटटी में  मिलाव,

के रहे भिखारी ????

हम देखनी
के उ कुछ मांगत रहे
शायद उ कूछ मागते रहे
मईल , पुरान, फाटल कपड़ा के टुकड़ा में लिपटल
लाज से मारल सिकुडल तन रहे
आंसू से भरल नयन रहे ..

उ भूख के आग में जलत रहे
परकिरती के क्रूरता में पलत रहे
इन्सान के जानवर में बदलत रहे
इंसानियत के इहे बात खलत रहे ...

आपना मईल फाटल कपड़ा से अपना तन के ढंकत रहे उ
पेट क खातिर ही सही हाथ सब के आगे पटकत रहे उ ..

अदम्य क्रूरता के हद के परतीक रहे उ नारी
दुसहासी रहे या रहे भूख के मारी
लोग कहा रहे ओकरा के दूर हट रे भिखारी ...

दूसरा ओर हम जवन देखनी

समाज भी भूखाइल रहे
का पेट के ????
ना ना वासना के
उ मांगत रहे वासना के भीख

समाज के आँख में दया भी ना रहे
लोक- लाज और हया भी ना रहे
उ चलावत रहे फब्तीय्न के तीर
जवन बढावत रहे कलेजा के पीर

उ हंसत रहे दोसरा के बेबसी पर
दोसरा के तड़प पर
और शायद अपना असमर्थता और कायरता पर भी

आज हम सोच तानी
का बस एगो हम हीं रहनी ओकरा सहायता के अधिकारी ???
के रहे भिखारी ?
के रहे भिखारी ?
उ समाज आ कि उ लाचार बेबस नारी ?

हम ना आएब :- भगवान के कथन

हम ना आएब ,
आखिर काहें आएब हम ,
केकरा-केकरा के समझायेब हम,
केकरा के न्याय के बात बताएब हम,
केकरा के शांति के पाठ पढायेब हम,

दू भाई के तांडव नृत्य
देखत रही जाएब हम ,
का एही खातिर आएब हम ,
केकर शांति दूत बन के जाएब
का भगवान वाला आपन छवि
खुद बचा पाएब हम ???

हम कौना-कौना रावण के मार गिरायेब
कौना- कौना कंस के मौत के नींद सुलायेब ?
अब शांति संदेस कहाँ सुनायेब ?
कौना कौना दुर्योधन के पास जाएब ?
का खुद बिना स्वार्थ के रह पाएब ????

जब चारू ओर हो रहल होखे चीर हरन ,
पुकारत होखसन द्रौपदी सब ,
हम कौना-कौना कौरव दरबार में जाएब ,
केकर केकर लाज बचायेब हम ,
जब चारो ओर मचल बा चीख पुकार,
का कौनो द्रौपदी के पुकार सुन पाएब हम ,

आखिर इतना वस्त्र -वसन कहा से लायेब हम ,
बहिर- गूंगा दर्शक बन के देखत रही जाएब हम ,
एहिसे सोचतानी नाही आएब हम ,
काहे से कि लूटत-बिलखत ऐ मानवता के ,
बचा ना पाएब हम , हाँ बचा ना पाएब हम ..

मै नारी हूँ

मै नारी हूँ
अक्सर मै इसी सोच में खो जाती हूँ
क्या मुझे वो अधिकार मिला है ?
मै जिसकी अधिकारी हूँ ?
मै नारी हूँ

 मनु कि  अर्धांगिनी मै
विष्णु- शिव कि संगिनी मै
मै अक्सर सोचा करती हूँ
क्या मै लक्ष्मी  और दुर्गा की अवतारी हूँ ??

 मै धर्म-धारण की प्रतिमूर्ति हूँ
मै सहनशक्ति की मूर्ति हूँ
जब अर्ध पुरुष हो कोई तो  मै ही उसकी पूर्ति हूँ
फिर भी जब जब पौरुष किसी का जलता है
तो सोचती हूँ क्या सिर्फ जलन की मै अधिकारी हूँ ??

जब जब दुर्योधन कोई ललकार लगाता है ,
तब तब युधिष्ठिर मेरा दावं लगाता है ,
जब हर जीत का होता है यहाँ  खेल कोई
मै आँखे मीचे खड़ी बेबस पांडव प्यारी हूँ ..

हर राम के साथ वनवास को जाती हूँ मै
और चुपचाप हर दुःख दर्द सह जाती हूँ मै
फिर भी परख मेरे चरित्र की होती है
तब चुपचाप  आग में खड़ी जनक-कुमारी हूँ .,,

जब जब पुरषार्थ किसी का हो जाता है छिन्न-भिन्न
तब तब मै पुकारी जाती हूँ चरित्रहीन
चुपचाप इसे  सुनकर मुझको शर्म खुद पर ही आती है
की क्यूँ नारी ही सारी दुनिया मै चरित्रहीन पुकारी जाती है ??

 चुपचाप प्रसव  पीड़ा नारी सह जाती है ,
हर दर्द वो बिना शिकन के सह जाती है ,
क्यूँ नारी हूँ? इसी संशय में रह जाती है ,
और समाज  में अबला खुद को कह जाती है ??

जब जब मैंने अपना भाव व्यक्त किया है
तब तब इस समाज ने रंजित रक्त किया है
जब जब कोई लक्ष्मण आवेश  में आता है
मै नाक कटी  शूर्पनखा   दुखियारी हूँ ,

पूछती हूँ मै मुझे कोख में मारने वालों से ,
क्यूँ हर घर में जलती  आई हूँ ,सालों-सालों से ??
नफरत करती हूँ मै मंदिर मस्जिद शिवालों से ,
नफरत है मुझको इन मूर्ति पूजने वालों से ..

कहने को कोई मुझको दुर्गा-काली का अवतार कहे
या लक्ष्मीरूपा और सरस्वती कोई  मुझको बार-बार कहे
छोड़ दो तुम अब किसी देवी के चरणों पे गिरना
कोख से फेंकी हुई हर नवजात बात यही बार बार कहे

व्यभिचारी  बन जब समाज  यहाँ कोई जीता है
क्या उसके लिए नही कोई धर्मग्रन्थ,कुरान और गीता है .?????


( नारी-जगत  को समर्पित मेरी आगामी काव्यसंग्रह  " नारी तू नारायणी " से )
( सर्वाधिकार सुरक्षित द्वारा राजीव कुमार पाण्डेय )