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गुरुवार, 14 मई 2020

लड़ाई

लड़ते दोनों हैं, 
वो बिस्किट के लिए, 
आप सत्ता के लिए, 

लड़ते दोनों हैं, 
आप देश चलाने ले लिए , 
वह, 
देश में जीने के लिए, 

याद होगा आपको, 
चुनाव में आप, 
उसके घर जाके, 
खाते थे, 
तब आप भूखे होते थे, 
उसके वोट के लिए.. 

आज लौटा दीजिये, 
उसको, 
जो आपने चुनाव में उसके घर खाया था, 
उसका हिसाब कर दीजिये, 
आज वो भूखा है, 
पेट का.. 

कल आप मोहताज होकर उसकी तरफ देख रहे थे, 
आज वह ताक रहा है, 
आपकी तरफ, 
उसे अपना हिसाब बराबर करना है, 
और आपको उसके नमक का हिसाब, 

उसे उम्मीद है, 
आप अभी भी नमक हलाल जरूर होंगे .. 

©"माहिर"

बुधवार, 13 मई 2020

मैं रोटी हूँ.. !



मैं रोटी हूँ.. 
जी सही सुना आपने, एक रोटी l वही रोटी जो कभी एक पुरानी फिल्म में कपड़ा और मकान के साथ आकर उसे एक ब्लॉक बस्टर बना दिया था.. लेकिन मै सिर्फ आटे से नहीं बना हूँ, मैं बना हूँ, किसान के पसीने से उसकी उम्मीद से, उसके जज्बात से खेतों में लहललाते उसकी उम्मीद से भी.. 

यही नहीं मै वही रोटी हूँ, जो अपनी यात्रा तय कर के किसी फाइव स्टार होटल में एक सौ बीस रुपये में बिक जाता हूँ, बिल्कुल वैसे ही जैसे आज कुछ लोगों का ईमान बिक रहा है.. 

और मै वह रोटी भी हूँ, जो अपनी यात्रा के ग्लैमर से वंचित रह कर किसी सड़क किनारे रहने वाले किसी इंसान की थाली में नमक और कभी -कभी प्याज के साथ खत्म हो जाता हूँ.. 

मेरी यात्रा यूँ तो पीसने और जलने से ही शुरू होती है, लेकिन मुझे तब ज्यादा दुख होता है ,जब मेरे इस जलन के बाद मै किसी शादी बारात के कुड़े के ढेर में बिना किसी के भूख मिटाये अपनी यात्रा समाप्त कर देता हूँ. तब खुद को लज्जित और ग्लानि में महसूस करता हूँ.. 


लेकिन जानते हैं, सबसे ज्यादा मैं कब टूट जाता हूँ, तब ,जब कुड़े के ढेर से मुझे कोई उठा कर धोकर और निवाला बनाता है, दस बीस दिन के भूखे इंसान का निवाला बन के अपने रोटी होने पर मैं खुद रो पड़ता हूँ, तब मैं शर्म करने लगता हूँ कि मैं कैसे देश में, किस परिवेश में आ गया हूँ..और तब मैं जाने क्यूँ महान लोगों के देश में स्वयम के होने पर ही हीन महसूस करने लगता हूँ.. 


यूँ तो अपने द्वारा बिना भूख मिटाये जाने पर मैं हमेशा ही रोष में रहता हूँ लेकिन पिछले दिनों मैं सबसे ज्यादा दुःखी हुआ था, जब मैं ट्रेन की पटरियों पर पड़ा हुआ था l यह मेरे लिए एक दम नया अनुभव था l अभी तक मैं सड़क के किनारे, होटल के डस्टबिन , कुड़े के पॉलीथीन में फेंका जाकर भी उतना दुःखी न हुआ जितना कि मैं ट्रेन की पटरियों पर पड़ा हुआ था..
 यही नहीं मुझ पर कुछ खून के धब्बे थे.. 

मैं काफी देर तक यह समझ ही नहीं पाया कि मुझ पर यह खून के धब्बे किस चीज के थे... लोकतंत्र की हत्या के, इंसानियत की हत्या के, राजा -रंक के बीच के अंतर की हत्या के, धार्मिक उन्माद की हत्या के, विशेष और अवशेष की हत्या के. या मजदूर और मजबूर के बीच के अंतर की हत्या केके..या फैक्ट्री मालिक के मालिक होने के दम्भ की हत्या के. ? 

अभी मैं इन प्रश्नों से विचलित ही था ,तब तक अचानक से सुबह हो गयी, अचानक से मुझ पर कैमरे की फ्लैश चमकने लगी, और मुझ नाचीज पटरी पर बिखरे रोटी की किस्मत पलट गयी, मैं अब लोकतंत्र का हिस्सा बन जाने वाला था, मेरी तस्वीर पर अब डिबेट होने वाला था, चार- चार पांच -पाँच लोग अब मेरे साथ- साथ  मेरे बिखराव पर भी बहस करने वाले थे.. मेरे साथ चले और तवे से लेकर मेरी पटरी तक की इस यात्रा तक मेरे साथ रहे सहयात्रियों पर भी बहस हो रही थी.. 

लेकिन यह क्या, कुछ ही देर में बड़े बड़े लोग आ गए, कोई मंत्री कोई अभिनेता सब, वो मेरे सह यात्रियों  के शवों को देख कर बहुत दुःखी थे.. किसी की नजर में मेरे साथ मेरी इस यात्रा वाले बेवकुफ थे जिनको यह नहीं नहीं पता था कि उन्हे कहाँ सोना बैठना चाहिए.. तो किसी की नजर में वे देश के निर्माता थे, किसी की नजर में वे योद्धा थे जिन्होंने अपनी जिजीविषा को आगे रखा, तो किसी की नज़र में वे कायर थे जो लड़ नहीं पाए और मुझे साथ लेकर उस तरफ चल दिये जहाँ से वह मेरे लिए ही बड़े शहर की तरफ निकल आये थे और आज वापस वहीं जा रहे थे.. 


मुझे नहीं पता था कि मेरे साथ मुझे ढोकर लाने वाले लोगों की लाश को लोग साथ लेकर जाने वाले थे... अचानक से मैंने देखा कि उनको उठा कर लेकर जाने लगे लोग, उन्हीं पटरियों पर उनके लिए  एक ट्रेन लगाई गयी..  उन्हें उस पर रखा गया.. अब मैं खुश था कि पैदल चलने वालों की यात्रा अब ट्रेन से होगी... मैं भी थक गया था पटरियों पर चलते- चलते ... मुझे भी उम्मीद थी कि अब मुझे भी कोई उठायेगा लाद देगा मेरे सह यात्रियों के साथ... मैं अंत समय तक उनके साथ चलना चाहता था... 

लेकिन यह क्या कोई ध्यान ही न दिया.. मैं वहीं पड़ा था उन्हीं पटरियों पर.. भीड़ कम हो रही थी..मैं डर रहा था.. अपने अकेले हो जाने पर... मुझे दुःख हो रहा था गरीब की रोटी होने पर.... मुझे अफसोस हो रहा था अपनी किस्मत पर...लेकिन मैं रो रहा था उन सह यात्रियों के साथ छोड़ जाने पर और अफसोस हो रहा था... कि मैं उनके काम नहीं आ पाया और बिखर गया... 


मैं अब भी वहीं पड़ा हूँ,  उन पटरियों में..मैं खत्म हो जाऊँगा सूख कर..  काश कोई मेरी नीलामी ही करा देता... कोई तो खून से सने मुझ रोटी की वाजिब कीमत लगाता... 
मैं नहीं जानता अपना भविष्य.. लेकिन मैं अब जिंदा रहूँगा... फेसबुक, ट्विटर पर और अब मैं भूख का नहीं चुनाव का मुद्दा हूँ... 

मैं रोटी हूँ... जलना मेरी किस्मत है... मैं जिसे नहीं हासिल उसका ख्वाब हूँ... मैं सवाल हूँ.. और मैं ही हर सवाल का जवाब हूँ... 

बस यही कहूँगा जाते जाते... मुझे खून के धब्बे से डर लगता है अब..... 






शुक्रवार, 23 मार्च 2012

सरदार भगत सिंह के आत्मा की आवाज

शहीद दिवस पर शहीदों को समर्पित एक कविता ...
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एक दिन कलम ने आके चुपके से मुझसे ये राज खोला ,
कि रात को भगत सिंह ने सपने में आकर उससे बोला,

कहाँ गया वो मेरा इन्कलाब कहाँ गया वो बसंती चोला ?
कहाँ गया मेरा फेंका हुआ, मेरे बम का वो गोला ?

आत्मा ने भगत के आकर कहा , ये देख के हम बहुत शर्मिंदा हैं,
कि देश देखो आज जल रहा है,और जवान यहाँ अभी भी जिन्दा हैं ??

देख के वो रो पड़ा इस देश की अंधी जवानी ,
क्या हुआ इस देश को जहाँ खून बहा था जैसे हो पानी ,

खो गया लगता जवान आज जैसे शराब में ,
खो गया आदतों में उन्ही , जो आते हैं खराब में ,

कीमतें कितनी चुकाई थी हमने, ये तो सब ही जानते हैं
तो फिर इस देश को हम आज , क्यूँ नही अपना मानते हैं ?

देश के संसद पे आके वो फेंक के बम जाते हैं ,
और खुदगर्जी में हम सब उन्हें अपना मेहमां बनाते हैं ,

भूल गये हो क्या नारा तुम अब इन्कलाब का ???
जो पत्थरों के बदले में भी थमाते हो फुल तुम गुलाब का ?

मानने को मान लेता मानना गर होता उसे ,
जान लेता हमारे इरादे गर जानना होता उसे ,

आँखों में आंसू आ गया, देख के अब ये जमाना ,
लगता है आज बर्बाद अब , हमको अपना फांसी लगाना ,

ऐ जवां तुम जाग जाओ तुम्हे देश ये बचाना होगा ,
आज आजाद और भगत बन के तुम्हे ही आगे आना होगा

ऐ जवां तुम्हे नहीं खबर ,कि जब-जब चुप हम हो जाते हैं
देश के दुश्मन हमे तब-तब, नपुंसक कह- कह कर के बुलाते हैं,

उठो और लिख दो आज फिर से, कुछ और कहानियाँ ,
कह दो जिन्दा हैं अभी हम और सोयी हैं नही जवानियाँ,

गर लगी हो जवानी में, जंग, तो हमसे तुम ये बताओ ,
या खून में उबाल हो ना , तो भी बस हमसे सुनाओ,

एक बार फिर से हम इस मिटटी के लाल बन के आयंगे ,
एक बार इस देश को अपनों के ही गुलामी से हम बचायेंगे ,

नारा इन्कलाब का हम फिर से आज लगायेंगे ..
पर ये सवाल हम आप से फिर भी बार-बार दुहराएंगे,

कि आखिर कब तक ?? आखिर कब तक ?
इस देश के जवां कमजोर और बुझदिल कहलाते जायंगे.....
इसको बचाने खातिर कब, तक भगत सिंह और आजाद यहाँ पर आयंगे ???